राजेंद्र प्रसाद
सही फैसलों के लिए आयु, अनुभव, ज्ञान, समझ, स्थिति, परिपक्वता आदि की जरूरत होती है। बचपन में तो हम उनका अर्थ नहीं समझते, लेकिन बालिग होते-होते घर-परिवार में रूबरू होते फैसले आसानी से देख सकते हैं।
अगर हम थोड़ी सूझ-बूझ और रुचि रखते हैं तो इस उम्र में फैसला लेने की परंपरागत सीख बड़ों से मिलनी शुरू हो जाती है। जिंदगी में समय के साथ पड़ाव बदलते हैं। एक उम्र में फैसले देखते हैं, फिर उनका पालन करते हैं और फिर चाहे-अनचाहे फैसले लेने का भार खुद पर आ पड़ता है। जब बड़े फैसले लिए जाते हैं तो कभी-कभी नासमझी में वे गलत, बेमतलब और आधारहीन लगते हैं, पर जब खुद फैसले लेने पड़ें तो मनमानी करते हैं, जिससे औरों को दिक्कत होती है।
तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और तकनीक के दौर में सोच बदल रही है, जिससे घर-परिवार में लिए गए फैसलों पर अमल से पहले ही प्रश्नचिह्न लगने संभव हो गए हैं। ऐसे में फैसला सही अंजाम तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ने लग जाता है। जहां परिवार में एक होकर, एक स्वर में फैसले लिए जाते हैं, वे आमतौर पर पार उतर जाते हैं। इससे समाज में मजबूती भी दिखती है। अगर बचपन से फैसलों की प्रक्रिया से अपने को जोड़े रखा जाता है तो सही फैसले लेने में कुशलता और दूरदर्शिता जल्द आ सकती है। जब मुखिया ने गुण-दोष के बाद फैसला लिया तो उसको लागू करवाने में उसकी मदद करनी चाहिए, तभी फैसले सिरे चढ़ते हैं।
सच यह है कि परिपक्वता के अभाव में एक भी गलत फैसला गलत राह पर ले जा सकता है। इसलिए समझ-बूझ वाले व्यक्ति को यह सवाल हमेशा मथता है कि सही और गलत निर्णय की रूपरेखा क्या हो। निर्णय के वक्त यह बात कौंधती रहनी चाहिए कि उसमें दूरदृष्टि और सूझबूझ रहे। मोटे तौर पर निर्णय करने के तीन प्रधान तत्त्व हैं- अनुभव, ज्ञान और व्यक्त करने की शक्ति।
फैसले लेने का हकदार कोई भी व्यक्ति उसकी सफलता और विफलता की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। अगर काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, जिद, स्वार्थ आदि विकारों में रहकर निर्णय लिए जा रहे हैं तो वे बेहतर नहीं होंगे। वहीं निर्णयों की जड़ में प्रेम, मेल-मिलाप या सरलता है और वे विवेक से प्रेरित हैं तो उसका फल आशाजनक और उत्साहवर्धक होगा। ऐसे करते समय कुछ परेशानी हो सकती है, पर संतोषजनक फल के आसार बने रहेंगे।
निर्णय तभी अर्थवान हैं जब उन पर विवेक साथ हो। विवेक की जीवंतता के लिए निरंतर अभ्यास की आदत हमेशा बनी रहनी चाहिए। निर्णय के समय विवेक जाग्रत करता है कि क्या उचित और क्या अनुचित है। अगर हम विवेक को अनसुना करते हैं और विकारों से युक्त होकर निर्णय लेते रहते हैं तो उनके दुखद परिणाम जीवन भर कचोटते हैं। ऐसे में विवेक को अनसुना करेंगे तो वह हमें सतर्क करना छोड़ देता है।
खुद आत्ममंथन करते हुए गलती का दोष किस्मत पर थोपकर पल्ला झाड़ने से बचना चाहिए। अगर कुछ पसंद नहीं तो खुद को खंगालने और चर्चा करने की जरूरत है, लेकिन चुप रहकर किसी निर्णय तक नहीं पहुंचना चाहिए। एक मिनट में जिंदगी नहीं बदलती है, पर एक मिनट सोचकर लिया हुआ फैसला पूरी जिंदगी बदलने की कुव्वत रखता है। एक इच्छा कुछ नहीं बदलती, एक निर्णय जरूर कुछ बदलता है, लेकिन निश्चय सब कुछ बदल सकता है।
हमें निर्णयों से पड़ने वाले प्रभाव से सबक लेना चाहिए। यहां तक कि कुछ गलत फैसले जिंदगी का सही मतलब समझा जाते हैं। सही निर्णय से जहां दोहरा आत्म-विश्वास पैदा होता है, वहीं गलत निर्णय से दोहरा अनुभव मिलता है। किस्मत किसी का निर्णय नहीं बदल सकती पर उसका निर्णय किस्मत बदल सकता है। सही समय पर सही फैसले करके जिंदगी को आसान बनाना पड़ता है। निर्णय के वक्त जिद नहीं, दृढ़ता हो… कमजोरी नहीं, बहादुरी हो… जल्दबाजी नहीं, सब्र हो… घमंड नहीं, विनम्रता हो..!
परिणाम तो भविष्य में पड़ा हुआ है। सुलझा हुआ मनुष्य वह है, जो अपने निर्णय खुद करता है और उनके परिणाम के लिए शुद्ध रूप से दूसरे को दोष नहीं देता। जब आदमी अपनी गलतियों का वकील और दूसरों की गलतियों पर जज बनता है, तब फैसले नहीं, फासले हो जाते हैं। दूरदृष्टि से कुछ फैसले दिल पर पत्थर रखकर लिए जाते हैं। वे फैसले अच्छे नहीं होते, जो घर और समाज में दूरी बढ़ा जाते हैं।
जीवन के तीन मंत्र- आनंद में वचन नहीं दिया जाए, क्रोध में उत्तर नहीं दिया जाए और दुख में संभलकर निर्णय लिया जाए। जीवन सच में सुंदर है और उसको सुंदर और सकारात्मक बनाए रखने की जिम्मेदारी हमारी है। अपने निर्णयों की नींव बदलें और फिर देखें कि जिंदगी कितनी सुंदर हो जाएगी। उचित समय पर उचित निर्णय से हमारी योग्यता परिलक्षित होती है।