पवन कुमार शर्मा
यह अपने भीतर विविध कृषि प्रणाली को समाहित किए हुए है जैसे पशुओं के गोबर से खाद निर्मित करना, पेड़ों के पत्तों को इकट्ठा करके उन्हें जलाकर ऊर्जावान खाद तैयार करना आदि, जहां फसलों पर किसी भी प्रकार से रासायनिक कीटनाशक एवं उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
हमारे यहां के आम किसान भी यह जानते हैं कि प्रकृति प्रदत्त तरीका अपनाने से खेती में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़ों के दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है और इससे किसी भी प्रकार का हानिकारक प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर दिखाई नहीं देता। इसके साथ-साथ कृषि के क्षेत्र में पेड़-पौधों को बचाने का एक सार्थक तरीका हम सब देख सकते हैं।
इससे फसलों और पौधों को कम नुकसान पहुंचता है। फसल अच्छी होने से किसानों के जीवन में खुशहाली आती है। फसल की बुआई से लेकर कटाई तक हानिकारक कीड़ों, बीमारियों आदि से फसल सुरक्षित रहेगी तो वातावरण प्रदूषण से बचा रहेगा। यह सभी जानते हैं कि हरित क्रांति ने अनाज की हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति की है, पर इसके कई दुष्परिणाम भी सामने आए।
दरअसल, रासायनिक खादों का उपयोग किसी निश्चित मात्रा में ही किया जाना था, लेकिन इसका प्रयोग अत्यधिक मात्रा में किया गया। नतीजतन, भूमि की उर्वरता समाप्त हो गई, उपज घटने लगी। रासायनिक खादों, ट्रैक्टरों के अत्यधिक प्रयोग ने कई ऐसे झाड़ (छोटे स्वत: ही उगने वाले पौधे) समाप्त कर दिए, जिनकी पशुओं के लिए और औषधीय गुण थे। लेकिन रासायनिक या यांत्रिक खेती ने परंपरागत साधनों को लगभग लुप्त कर दिया।
यांत्रिक खेती ने मिट्टी की गुणवता खराब कर दी और ज्यादा से ज्यादा रसायन खेतों, फसलों के भीतर जाने से, भूजल दूषित होने से कैंसर जैसी भयंकर बीमारी ने मानव जीवन को अपने चपेट में ले लिया। इसका ज्वलंत उदाहरण पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्य जिलों से सटे गांवों आदि में देखा जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में प्राकृतिक खेती के कारण कुछ अस्थिरता भी आई है, लेकिन यह अस्थिरता प्राकृतिक खेती में संतुलन न बैठाने के कारण आई है। इसका ज्वलंत उदाहरण श्रीलंका जैसा देश है। वर्तमान समय में श्रीलंका में की जा रही प्राकृतिक खेती की चर्चा विश्व भर में है। कुछ कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि कृषि रसायनों के बिना खेती करना आज के युग में असंभव है। फसलों को बढ़ाने के लिए रसायनों का प्रयोग अपेक्षित है।
वहीं कुछ कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि प्राकृतिक खेती ही ज्यादा उपयुक्त है। बहरहाल, श्रीलंका जैसे देश ने प्राकृतिक खेती के साथ अतिशय छेड़छाड़ शुरू कर दी थी, जिसका भयंकर परिणाम श्रीलंका को आर्थिक अस्थिरता के रूप में उसे झेलना पड़ा। वह बाजार आधारित उत्पाद पर ज्यादा निर्भर रहने लगा, खेत आधारित व्यवस्था का श्रीलंका के किसानों ने ठीक तरह से सर्जन नहीं किया, उसमें संतुलन नहीं बैठाया।
भारत की यह परंपरा लगभग चार हजार सालों से भी ज्यादा पुरानी है। चीन में भी अपने प्रारंभिक दौर में प्राकृतिक खेती के तरीके को ही अपनाया गया था। यूनानियों ने भी मृदा पर्यावरण का संरक्षण करने के लिए इस तरीके को अपनाया था। इन सभी देशों ने भूमि की उर्वरा शक्ति को लंबे समय तक अपने यहां बनाकर रखा। भारत में भी हिमाचल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ भाग, मध्य प्रदेश आदि में प्राकृतिक खेती के साथ सामंजस्य बैठाकर फसलों की उत्पादन क्षमता को बढ़ाया जा रहा है। शुद्ध और पौष्टिक अनाज का उत्पादन किया जा रहा है।
हम गौर कर सकते हैं कि ऐसा करने से शरीर के साथ-साथ स्वस्थ समाज, स्वस्थ दिमाग, स्वस्थ देश का निर्माण हो सकता है। बल्कि यह बात तो साफ है कि कीटनाशकों का इस्तेमाल कृषि योग्य भूमि में नहीं करना चाहिए, अन्यथा पर्यावरण और कृषि से जुड़ी अधिकतर समस्याएं हमारे सामने आ जाएंगी और प्रकृतिपरक खेती का संतुलन बिगड़ जाएगा। उसका खमियाजा किसानों को लंबे समय तक भोगना पड़ेगा।
इसलिए भूमि की गुणवत्ता, उर्वरता, उत्पादन, उत्पादकता को बढ़ाने के लिए और अतिरिक्त आय सृजित करने के लिए पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनना होगा और कृषि में शुद्ध जैविक या प्राकृतिक खेती को अपनाकर रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग की संभावना को कम करना होगा।
रासायनिक खाद के ज्यादा प्रयोग से खेत की मिट्टी में अम्ल की मात्रा बढ़ जाएगी। जिंक की लगातार कमी से मनुष्य के बाल झड़ने लगेंगे। कुपोषण की भी समस्या उत्पन्न हो जाएगी। इसके अलावा रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाएगी। असमान मानव-मृत्यु के आंकड़े तेजी के साथ बढ़ने लगेंगे। लागत-लाभ का आकलन मुश्किल हो जाएगा। इसे दूर करने के लिए पूरे विश्व को पोषण प्रबंध और जैविक नियंत्रण विधियों को सशक्त करने की आवश्यकता है।