funny poems for kids सकारात्मक के मुकाबले बहुत से नकारात्मक विचार सामने आते हैं। उन्हें सुन कर लगता है कि जैसे हमारे यहां बच्चों के लिए कुछ लिखा-पढ़ा नहीं जाता। अनेक अध्यापकों का कहना होता है कि उन्हें कविताओं की वे पुस्तकें चाहिए, जिनमें मजेदार गीत हों, जो सुर-ताल में गाए जा सकें। देखने वाली बात यह कि बच्चों के लिए हास्य कविताएं या कहानियां बहुत कम लिखी जाती हैं। ऐसा क्यों है, यह समझ में नहीं आता। जबकि छोटे बच्चों की खिलखिलाहट हर रचनाकार को पसंद आती है। तब ऐसी रचनाएं कम क्यों लिखी जाती हैं। दूसरी जिन पुस्तकों की अध्यापकों को सबसे अधिक जरूरत है, वे हैं- बाल नाटक। इनकी संख्या भी कम नजर आती है। इनकी जरूरत अध्यापकों को इसलिए ज्यादा होती है कि समय-समय पर स्कूलों में होने वाले आयोजनों में इनका इस्तेमाल किया जा सके।
लेखकों की शिकायत रहती है कि बच्चों की कहानी, कविताएं, नाटक, विविध सामग्री छापने वाले प्रकाशक बहुत कम हैं। अगर पुस्तकें छप भी जाएं, तो अकसर उनका नोटिस नहीं लिया जाता। बाल साहित्य को छापने वाली, किताबों की सूचना देने वाली पत्र-पत्रिकाएं भी बहुत कम हैं। बहुत सी जानी-मानी पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। अखबारों में भी बच्चों के लिए छपने वाली सामग्री अब बहुत कम दिखाई देती है। यों हर साल बच्चों के लिए हजारों किताबें छपती हैं। बिकती भी हैं, लेकिन इनकी जानकारी के लिए बहुत कम जगहों पर इनकी समीक्षाएं दिखाई देती हैं। हों भी कैसे, जब तमाम माध्यमों में बाल साहित्य के लिए कोई जगह ही नहीं है।
हां, सोशल मीडिया के जरिए जरूर बहुत-सी जानकारियां मिल जाती हैं। फेसबुक पर बहुत से रचनाकार अपनी रचनाएं साझा करते हैं। इन दिनों कई रचनाकार अपने यू ट्यूब चैनल भी चलाते हैं। बाल साहित्य की सूचनाओं के लिए बहुत से वाट्सऐप समूह भी हैं। फिर भी बहुत से लोग कहते पाए जाते हैं कि अपने देश में तो बच्चों के लिए कुछ लिखा ही नहीं जाता। जो लिखा जाता है, उसमें कोरा उपदेश और वही फूल, चिड़िया, दादी, नानी, स्कूल आदि की बातें रहती हैं और विज्ञान लेखन तो बच्चों के लिए है ही नहीं। यह बात इसीलिए कही जाती है कि जानकारी का बेहद अभाव है।
चिड़िया, तोता, आसमान, बादल, दादी, नानी पर लिखना आखिर क्यों बुरा है। क्या बच्चों और जानवरों की दोस्तियों के किस्से हमने नहीं सुने। क्या बच्चे इन्हें पसंद नहीं करते। देखा तो यह जाना चाहिए कि इन पर लिखने वालों ने क्या नए प्रयोग किए। बच्चों की दुनिया से इन्हें कैसे जोड़ा। दशकों से यह अवधारणा चली आती है और अपनी जानकारियों को अद्यतन करने के मुकाबले इसी तरह के ढोलों पर तरह-तरह का संगीत बजाया जाता है।
एक ढोल यह भी है कि हिंदी में बड़े लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखते हैं। आखिर बड़ा लेखक कौन होता है, इसकी परिभाषा किसने तय की है। कैसे कोई बड़ा है और कोई छोटा, इसकी पहचान क्या है। कैसे की जा सकती है। आखिर बच्चों और बड़ों के लिए लिखने वालों का विभाजन क्यों होना चाहिए। ऐसा क्यों माना जाना चाहिए कि जो बड़ों के लिए लिखने में सफल न हो सके, वे बच्चों के लेखक बन गए। ऐसे लेखकों की कमी तो नहीं, जो बड़ों और बच्चों, दोनों के लिए लिखते हैं। इसके अलावा जो रचनाकार सिर्फ बच्चों के लिए लिखते हैं, उन्हें मात्र इस वजह से कमतर क्यों आंका जाना चाहिए। या कि इस तरह की सोच इसी बात से जुड़ी है कि बच्चे हमारी चिंता के केंद्र में अकसर नहीं होते। उन्हें हम अपने से हमेशा कम आंकते हैं, इसलिए उनके लिए लिखने वालों के लिए भी ऐसी ही राय प्रकट करते रहते हैं। वे जिन्हें बड़ा लेखक कहते हैं, उनके लिखे के बारे में भी जनाकारियों का अभाव है।
एक बात और कही जाती है कि आजकल बच्चे पढ़ते नहीं हैं। क्या सचमुच ऐसा है। अगर ऐसा है तो, आखिर किताबें बिकती कैसे हैं। वे छपती भी क्यों हैं। फिर इन दिनों कितने माता-पिता ऐसे हैं, जो बच्चों को किताबें खरीद कर पढ़ने के लिए देते हैं। उन्हें पाठ्यक्रम से इतर किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। जब भी वे बच्चों को उपहार देने की सोचते हैं, उनमें किताबें कहीं नहीं होतीं। जो किताबें होती भी हैं वे मातृभाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी की होती हैं। हर माता-पिता अपने बच्चों की अंग्रेजी अच्छा बनाने पर जोर देता है। क्योंकि दशकों से कुछ ऐसा वातावरण निर्मित किया गया है, जिसमें सफलता माने अंग्रेजी है। हर भाषा का सम्मान किया जाना चाहिए। मगर उसे ही पढ़ने-जानने वाले सफल हो सकते हैं, यह सोच घटने के मुकाबले लगातार बढ़ रही है। वे लोग जो हिंदी के रचनाकार हैं, वे ही इस भाषा के विकास के लिए कितना प्रयत्न करते हैं।