जैसे कोई शिशु मन के द्वार पर दस्तक दे रहा हो और लोग अपनी व्यस्तताओं के शोर में डूबे हुए उसकी पुकार सुन ही न पा रहे हों। साहित्य में वसंत ऋतु के आगमन का वैभव और वर्णन दोनों ही हमें प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर कालिदास तक के साहित्य में इसके अनगिन उदाहरण देखने को मिल जाएंगे।
ऋतुसंहार, मेघदूत और अभिज्ञान शांकुतलम् में वसंत की पीत आभा और शोभा का वर्णन है। वासंती सजधज को देखकर दुष्यंत भ्रमित हो जाते हैं। कुमार संभव में पूजने के लिए बढ़ रहे दो सुकुमार चरण ऐसे लग रहे हैं जैसे नवविकसित पल्लवों को धारण करने वाली कोई वसंतलीला चली जा रही हो। कालिदास लिखते हैं- ‘…यह सर्वप्रिय ऋतु आ गई।’
वसंत मात्र ऋतु नहीं है, मन का उल्लसित भाव भी है। अगर मन में उत्साह है तो हर ऋतु वसंत है। अगर मन में उदासी है तो वसंत का प्रभाव अनुभव नहीं किया जा पाता है। वसंत ऋतु में फूलों की आभा का नृत्य मनोहारी होता है। ऋतुओं का अपना राग है, अपनी लय है। वसंत सृजन के काल की शुरूआत है। खेतों में सरसों का फूलना, हवा की हल्की नमी और बांकपन मन को आह्लादित कर और तन को पुलकित कर देता है। खड़ी बोली के जन्मदाता रचनाकार अमीर खुसरो लिखते हैं- ‘सकल बन फूल रही है सरसों/ बन बिन फूल रही सरसों/ अम्बवा फूटे टेसू फूले/ कोयल बोले डार-डार/ और गोरी करत सिंगार।’
पुराने समय में में पाटी पूजन या अक्षर बोध के लिए वसंत पंचमी के दिन को शुभ माना जाता था। कला, संगीत, लेखन की दुनिया में वसंत पंचमी के दिन का महत्त्व विशेष है। स्कूल, कालेजों में होने वाले आयोजनों की तन्वंगी धारा आज भी यदा-कदा अखबारों की सुर्खी में दिख जाती है। इस दिन जौ के पौधे से भगवान की पूजा का विधान भी है। जौ समृद्धि का प्रतीक है। मौसम इन दिनों खुशनुमा हो जाता है।
सभी शुभ कार्यों विवाह, गृह प्रवेश, अन्न प्राशन आदि के लिए इस दिवस को शुभ माना जाता है। शायद इसीलिए आशावादी स्वर में गोपालदास नीरज कहते हैं- ‘आज बसंत की रात/ गमन की बात न करना/ धूप बिछाए फूल-बिछौना/ बगिया पहने चांदी-सोना/ कलियां फेंके जादू-टोना/ महक उठे सब पात/ हवन की बात न करना।’
आम्र मंजरियों की मादक गंध आज भी बौरा देती है। पलाश के लाल वृक्षों से दहकते वन भी आकृष्ट करते हैं, लेकिन ठहर कर उसे देखने का अवकाश हमारे पास नहीं है। प्रकृति का राग सुनना मनुष्य ने बंद कर दिया है। उससे हमारा तादात्म्य समाप्त होता जा रहा है। प्रकृति के आनंदोत्सव वसंत को सहेजने और अनुभव करने की जरूरत है। पुष्पों का वैविध्य, पक्षियों की विभिन्न ध्वनियों का कलरव दरअसल अनेकता में एकता का संदेश देता है। यह एकता है वसंत में छिपे आनंद रस की एकता। वसंत जो ऋतुओं का राजा है, चुपचाप व्यस्तता के गलियारे में खड़ा हो टुकुर-टुकुर ताकता रह जाता है और उसकी बारी आ ही नहीं पाती।
वसंत का अर्थ है उल्लास, आशा और परिवर्तन का संगम। लेकिन हालात विपरीत हैं। किसानों के चेहरे पर खुशी नहीं है, कंपनियां छंटनी करने में लगी हैं, महंगाई का बेलगाम नर्तन जारी है, युवा हाथों को काम नहीं है। ऐसे में वसंत आए भी कैसे भला? कौन उसका बांह फैलाए स्वागत करेगा? वह ठिठक कर खड़ा हो जाता है। जब युवा दिग्भ्रमित हो, वसंत कैसे खुश रह सकता है! आखिर युवा ही तो वसंत का प्रतीक है।
यों भी हमारे साहित्य का रिश्ता प्रकृति से लगातार टूटता चला जा रहा है। प्रकृति को लेकर कितनी रचनाएं हमारे वर्तमान साहित्यकारों की रचनाओं में मिलती हैं। धरती धसक रही हैं, सिसक रही है, जंगल सिमट रहे हैं, जानवरों के रहने की जगह नहीं बची है, हरियाली घट रही है। लेकिन प्रकृति के इस यथार्थ पर कितनी चिंतापरक, ईमानदार रचनाएं आज के लेखन में दिखाई पड़ती हैं? न के बराबर। नए रचनाकारों को तो ढंग से शायद दस पेड़ों और फूलों के नाम भी नहीं याद होंगे।
इसलिए सावन हो या वसंत या फागुन, उसके अहसास का पता ही नहीं चलता। तलाशने जाएं तो गूगल पर वही पुरानी कविताएं दिखती हैं पूर्ववर्ती रचनाकारों की। ‘सखि वसंत आया’ भी आज कितनी सखियों को याद होगा? लोग तो प्यार का पहला खत मोबाइल पर लिखने में व्यस्त हैं। जबकि वसंत का आना लोगों की जिद और स्वप्नों का पूरा हो जाना है। वसंत सिर्फ उनके जीवन में दस्तक देता है जो खुले हृदय से परिवर्तनों का स्वागत करने को तत्पर रहते हैं… जिनकी आंखें खुली हैं। वसंत उनके लिए बदलाव का एक खुशनुमा झोंका है, आमंत्रण है।