दुनिया मेरे आगे: हाशिये की एक छवि
केंद्र सरकार के नए नियमों के हिसाब से व्यापारी मंडी से बाहर भी फसल खरीद सकते हैं। जिन स्थानों पर फसल को मंडी में ले जाकर बेचने की व्यवस्था नहीं है, वहां फसलों की कीमत व्यापारी तय करते हैं और निश्चित रूप से व्यापारी अपने लाभ की सोचते हैं, किसानों की नहीं। जब हम व्यापारी की बात करते हैं, तो घोड़े और खच्चरों पर अनाज लाद कर जाने वालों की बात नहीं करते, बल्कि उन बड़े व्यापारियों की बात करते हैं, जिनके बड़े-बड़े कारोबारी प्रतिष्ठान हैं।

आलोक रंजन
एक तस्वीर देखी। उसमें एक किसान और एक पुलिस का जवान आमने-सामने है। पुलिस वाले की लाठी उठी हुई और किसान की देह उस लाठी के इंतजार में है। जवान को सरकारी आदेश मानना होता है, लेकिन दिमाग तो उसी का तय करेगा कि लाठी से चोट कहां करनी है। उठी हुई लाठी के सामने कोई शौक से नहीं आता। किसान तो कतई न आएं, पर आना पड़ता है। अपने देश में कृषि की बात सार्वजनिक रूप से तब ही होती है, जब बड़ी संख्या में किसानों की अत्महत्याएं हो रही हों, अपनी मेहनत से तैयार फसल की उचित कीमत तय करवाने के लिए वे सड़क पर आ जाएं। वरना उनकी उपस्थिति सार्वजनिक जीवन में है ही नहीं!
हरियाणा के पीपली में शुरू में किसानों को प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिली तो वे चक्का जाम कर रहे थे। सरकार ने किसानों पर लाठी चलवा दी। किसानों का यह प्रदर्शन उन तीन अध्यादेशों के खिलाफ है जिसके लागू होने के बाद पहले से ही अलाभकारी हो चली कृषि की और हालत खराब हो जाएगी। उन नियमों का सीधा असर किसानों पर पड़ना है।
केंद्र सरकार के नए नियमों के हिसाब से व्यापारी मंडी से बाहर भी फसल खरीद सकते हैं। जिन स्थानों पर फसल को मंडी में ले जाकर बेचने की व्यवस्था नहीं है, वहां फसलों की कीमत व्यापारी तय करते हैं और निश्चित रूप से व्यापारी अपने लाभ की सोचते हैं, किसानों की नहीं। जब हम व्यापारी की बात करते हैं, तो घोड़े और खच्चरों पर अनाज लाद कर जाने वालों की बात नहीं करते, बल्कि उन बड़े व्यापारियों की बात करते हैं, जिनके बड़े-बड़े कारोबारी प्रतिष्ठान हैं। वे कीमतों को कभी किसानोन्मुख होने ही नहीं देंगे। न्यूनतम समर्थन मूल्य का जुआ उतर जाएगा और किसानों को हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी हानि ही उठानी पड़ेगी।
सरकार अनाज, दाल, आलू, प्याज, खाद्य तेल आदि को आवश्यक वस्तुओं की कोटि से निकाल रही है। एक बार ये सब आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर निकले कि इनकी तय मात्रा से अधिक के भंडारण पर से पाबंदी हट जाएगी। कम कीमतों पर फसल खरीद कर जमा कर लेने के बाद बढ़ी हुई कीमतों पर उन्हें बेचा जाएगा। यह समझने के लिए कोई बहुत ज्यादा मशक्कत करने की जरूरत नहीं है। आज भी ऐसे भंडारण किए जाते हैं और जब कीमतें बढ़ती हैं और उनसे इक्का-दुक्का विवाद होते हैं, तब सरकारें गैरकानूनी भंडारण पर कुछ बयान दे देती हैं और एक-दो छापे पड़ जाते हैं। अब भंडारण गैरकानूनी नहीं रहेगा तो न तो सरकार को बयान देने की आवश्यकता होगी और न ही छापा मारने की। किसानों को कीमत कम मिलेगी और उपभोक्ताओं से वसूली गई रकम सीधे व्यापार के बड़े खिलाड़ियों के हाथ में। सरकार बड़ी-बड़ी बातें भले ही कर दे, लेकिन वह किसानों के हित के लिए ईमानदार नहीं दिख रही है!
एक और बात है कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग यानी व्यावसायिक खेती की। इस तरह की खेती में बड़ी-बड़ी कंपनियां कूद रही हैं जो अपने बिक्री केंद्रों के लिए या तो खुद उत्पादन कर रही हैं या ठेके पर उत्पादन करवा रही हैं। इससे छोटी जोत वाले किसानों को न सिर्फ अपनी फसल औने-पौने दामों पर बेचनी होगी, बल्कि कृषि से उनकी बेदखली का रास्ता भी साफ हो जाएगा।
कृषि क्षेत्र लंबे समय से संकट से गुजर रहा है। इस शताब्दी की शुरुआत से ही किसानों की खराब हालत सामने आने लगी थी। बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्याओं को देखते हुए 2004 में सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। उस समिति ने 2004 से लेकर 2006 के बीच पांच रिपोर्ट सरकार को सौंपी। उनमें से पांचवीं रिपोर्ट में न्यूनतम समर्थन मूल्य को निर्धारित करने संबंधी एक सूत्र की बात की गई थी। सी-टू फॉमूर्ला वहीं से आया।
उसमें कहा गया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य औसत लागत से पचास प्रतिशत ज्यादा हो। यह सूत्र खेती में लागत की व्यापक परिभाषा तय करता है। इसके तहत लागत उस खास फसल में लगी पूंजी, पारिवारिक श्रम और जमीन सहित फसल के लिए उपयोग में लाए अन्य साधनों के किराए को जोड़ कर तय होती है। इस लागत पर पचास प्रतिशत ज्यादा कीमत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होना किसानों के हित में है। लेकिन तब की सरकार को भी उस रिपोर्ट पर अमल सुनिश्चित करना जरूरी नहीं लगा। सोचता हूं कि वह सरकार कब आएगी, जिसकी प्राथमिकता में सबसे निचले पायदान पर खड़े किसान भी आएंगे।
दरअसल, सरकारें आती-जाती रहती हैं और इस बीच खूब सारे वादे कर लिए जाते हैं। राजनीतिक दल अपने चुनाव प्रचार के दौरान जोर-शोर से यह कहते पाए जाते हैं कि वे किसानों की लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में तय करेंगे। लेकिन जब वादे पूरे करने का समय आता है तो ‘लागत’ की परिभाषा किसान आयोग की नहीं, बल्कि व्यापारियों के हितों के अनुसार होती है। ऐसे में किसान या तो कर्ज में डूब कर आत्महत्या का रास्ता अपनाते रहेंगे, नहीं तो पुलिस के डंडे की मार खाएंगे। नुकसान किसानों का ही होगा।