अनिल त्रिवेदी
एक समझ यह भी है कि जीवन केवल जीवन है, उससे कम या ज्यादा कुछ भी नहीं। पर यह तो बात को बढ़ने ही नहीं देना है या शुरू होते ही खत्म करना है। जीवन एक ऐसा सिलसिला है, जो जन्म और मृत्यु का नियंता है। शायद हममें से अधिकतर लोग जीव के प्राकृत स्वरूप में स्वयं तक ही सीमित न रहकर जीवन में हर प्रसंग का उत्सव मनाना चाहते हैं।
प्रतिदिन सोना, जागना, घूमना, खाना-पीना, कमाना आदि। शायद रोजमर्रा की एकरसता को बदलने के लिए हम सब जीवन के हर प्रसंग में सदैव कुछ न कुछ उत्सव करने की सहज चाहना रखते हैं। इसका नतीजा यह है कि हममें से कई मनुष्यों को यह लगता है कि बिना उत्सव का जीवन भी कोई जीवन है! पर यह भी वस्तुस्थिति है कि मनुष्य के अलावा कोई अन्य जीव मनुष्यों जैसा उत्सव नहीं मनाते हैं।
उन सबका जीवनक्रम ही एक तरह से उत्सव है। मनुष्येतर जीवों की अपनी भावाभिव्यक्ति हम महसूस कर पाते हैं, पर मनुष्य द्वारा सृजित उत्सव परंपरा पर मनुष्यों का एकाधिकार जैसा लगता है। वास्तविकता में ऐसा है नहीं। मनुष्येतर जीवन में उत्सव की अभिव्यक्ति का ढंग निराला है। उसे देखने के लिए एक अलग अनुभूति और उत्सव-दृष्टि होना जरूरी है।
जीवन के रूप-स्वरूप, आकार-प्रकार और जीवन-चक्र में बहुत अधिक विविधताएं हैं। मनुष्येतर उत्सव परंपरा का एक निश्चित प्राकृतिक क्रम है। वह मनुष्य की तरह सुविधानुसार और सकारण किसी निमित्तानुसार नहीं होता। जैसे वसंत ऋतु में आम पर मौर आना या आम का बौराना आम के उत्सव का प्रारंभ है। आम पर फल आने की शुरुआत छोटी-छोटी केरियों से लेकर लटालूम आमों से पेड़ का लद जाना आम की उत्सवधर्मिता का चरम है।
छोटे-बड़े बच्चों से लेकर कई तरह के पक्षियों का ‘आम फल उत्सव’ में अधिकारपूर्वक भागीदारी करना- यह सब आमवृक्ष की उत्सव परंपरा की धीर-गंभीर प्राकृत व्यवस्था का हम सबको अहसास कराता है। आम के मौरों पर मंडराने वाली मधुमक्खियां उत्सव की शुरुआत में ही उत्सव के सानंद समापन की आधारभूमि तय कर देती हैं। कभी किसी वर्ष आम के पेड़ पर मौर नहीं आते और उस साल केवल नए-नए पत्ते ही आते हैं और नए पत्तों को पतझड़ आने तक बिना किसी उत्सव या चहल-पहल के ही सूनेपन के सान्निध्य से ही संतोष करना होता है।
हरसिंगार पर जो फूलों की बहार आती है तो हर सुबह अपनी आधार भूमि को हरसिंगार अपने पुष्पों की चादर ओढ़ा कर जीवनदात्री धरती का अभिनंदन करता है। हरितिमा से सराबोर गेहूं और धान के खेतों में उत्सव की शुरुआत बालियों की बारात निकलने से होती है, तो मक्का, ज्वार, बाजरा के भुट्टों का आगमन अनाज उत्सव की शुरुआत कर छोटी-बड़ी चिड़िया को भोजन उत्सव का खुला मौन निमंत्रण दे देता है।
ठंड की शुरुआत होते ही न जाने कितने रंग-बिरंगे फूलों के खिलने पर रंग-बिरंगी तितलियों को अपने आसपास निरंतर अठखेलियां कर तितलियों का उड़ान उत्सव अपने आप समूची अवनी और अंबर को रंगीन बना देता है। तरह-तरह की सुगंधों से सराबोर मोगरा, चमेली, रातरानी जैसे छोटे-छोटे फूल सारे वातावरण में खुशनुमा खुशबू व्याप्त कर उत्सव की सूचना हर दिशा में फैला देते हैं। ठंड की विदाई और गर्मी का आगमन सारे उत्सवों को संन्यास परंपरा की ओर धकेल देता है। हरीतिमा से भरपूर जंगल, पहाड़, घास के मैदान जलविहीन यानी जीवनविहीन हो धीरे-धीरे पीले पड़ते जाते हैं और गर्मी में गेरुआ रूप-रंग धारण कर लेते हैं।
इस तरह, निस्तब्ध संन्यास शांति से अपने आप को एकाकार कर मौन को मुखर कर देता है। इसके बाद गर्मी में झुलसा हुआ सूखा जीवन बारिश की बूंदों के स्पर्श मात्र से अलसाए सुप्त जीवन को धरती के जीवन में हरियाली और खुशहाली के नए उत्सव की उद्घोषणा करता है। बरखा की बूंदें जीवन ही उत्सव हैं, यह संदेश दे धरती के हर कण में बदलाव का नया दौर जीवन के नए-नए अंकुरों का उदय कर फिर जीवन उत्सव में भागीदार बनने का अवसर देता है।
हम सब चाहे न चाहें, माने न मानें, हम सबका जीवन ही उत्सव है। इसीलिए जीव मात्र की उत्सवधर्मिता जीवन भर गतिशील रहकर इस धरती में जीवन को सतत प्रवाहमय बनाए हुए है। इसी से हर समय सहज प्राकृत स्वरूप में उत्सव हमें और हमारी धरती के सभी जीवों के जीवन को हर क्षण नए जीवनचक्र में आगे बढ़ाते हैं और जीवन के उत्सव प्रसंगों से जीवन का क्रम और अर्थ समझाते रहते हैं। यों जीवन को उत्सव कहना तो सरल है, पर जीवन भर मनुष्यों का मन आशा-निराशा, राग-द्वेष, लोभ और सत्य-असत्य के आसपास ही घूमता रहता है।
मनुष्येतर जीवन में यह सब मौजूद नहीं है। जीवन अपने प्राकृत स्वरूप में ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है, जिसमें जीवन की जीवंत हलचल होती है, जो उत्सवों का सृजनात्मक स्वरूप है और सारे जीवों में भिन्न-भिन्न रूपों में निरंतर अभिव्यक्त होता है।