सुरेश सेठ
इसीलिए अब एक नई बदलाव की घोषणा यह सामने आ रही है कि कुछ वर्गों ने परिवार नियोजन को अपना लिया और कुछ ने उसे न अपनाकर वर्गों के द्वारा मतदान का असंतुलन पैदा कर दिया। कुर्सियां संकट में आने लगीं। नतीजे अचानक पलटने लगे।
इसलिए अब एक नया संदेश भी आने लगा है कि मतदान में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन को रुखसत कर दो। चाहे यह दूसरी बात है कि जब आबादी जरूरत से अधिक बढ़ जाएगी, देश चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा तो यहां कोई उद्यम नीति नहीं नजर आने देना है। बस खैरात के लिए अपने हाथ और फैला दे, देश और विदेश में भी।
कैसी विसंगति है कि हमारा देश ऐसी क्रांतिकारी घोषणाओं के मुहाने पर खड़ा रहता है। फिलहाल हमने अपने देश को दुनिया की पांचवीं आर्थिक शक्ति तो कह दिया और जल्दी ही उसको तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनाने का संकल्प भी ले लिया, लेकिन दम तोड़ती हुई गरीबी के फैले हुए हाथ अपने लिए दान से कोई समाधान नहीं पा सके। लगता यह है कि क्रांति घोषणाएं चंद कदम चल कर नारों में तब्दील हो जाती हैं। क्रांति नहीं होती और बदलाव का अहसास भी जैसे मुंह चुराने लगता है।
इस क्रांति के लिए कई आयाम इन घोषणाओं की धरातल से उठे हैं। आजादी की आंख खुली तो आबादी के लिहाज से विश्व में चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर है। इजराइल के बाद पहला देश था भारत जिसने परिवार नियोजन को एक सरकारी नीति के तौर पर घोषित किया। तब सरकारीकरण का जमाना था, अमृत महोत्सव तक आते-आते यह सब मिश्रित हो गया। निष्प्राण सरकारी क्षेत्र को जीवन स्पंदन देने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर निजीकरण की कार्यकुशलता का यशोगान होने लगा।
अब जब देश उत्सवधर्मी हो रहा है, तो क्रांति घोषणाएं भूलुंठित होती नजर क्यों आ रही हैं? परिवार नियोजन का नारा उठा था, ‘हम दो, हमारे दो’ की लोक धुन पर, लेकिन यह धुन मध्य वर्ग की सीमा रेखाओं के बीच ही भटकती रही। परिवार नियोजन सर्वनियोजन न हो सका, क्योंकि सर्वहारा, शोषित वर्ग का क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया कि कोरोना ग्रस्त महंगाई और बढ़ती बेकारी ने निम्न मध्य वर्ग को वंचितों और प्रवंचितों की श्रेणी में शामिल कर दिया।
आबादी का विस्फोट किसी सीमा में बंधने के लिए तैयार नहीं हुआ। नई सूचना यह है कि वह दिन दूर नहीं जब दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या भारत में बसती नजर आएगी। चीन ने भी इसी अवधि में नारा लगाया था- ‘हम एक, हमारा एक’। नतीजा यह निकला कि उनके यहां जवानों की संख्या कम हो गई और उनकी आबादी में बूढ़ों का बोलबाला हो गया। देखते ही देखते चीन बूढ़ों का देश कहलाने लगा। अब वहां भी नारों का मुखड़ा बदलने लगा। ‘बस दो या तीन बच्चे, होते हैं अच्छे’ के नए ज्ञान के प्रकाश के लट्टू वहां जलते दिखाई देने लगे हैं।
भारत में परिवार नियोजन के मसीहा इतने बरस यहां मिथ्या आंकड़ों की जादूगरी से अपनी सफलता की घोषणा करते रहे। अच्छे दिन लाने वाली और गरीब के खाते में पंद्रह लाख भरने वाली नई नारायुक्त क्रांति शुरू हई, तो इसका क्रांति वाहन नोटबंदी का पहिया चलने से पहले ही लाइन से उतर गया। इस देश में काम तलाशते नौजवानों की संख्या इतनी बढ़ गई कि यह कालावधि के लिहाज से बूढ़ा देश आबादी के लिहाज से ‘युवकों का देश’ बन गया, जिसकी आधी आबादी काम मांगते नौजवानों की है।
सरकार ने भी इनकी समस्या का हल फिलहाल उदार संस्कृति से कर दिया, उदार मुफ्त बांटने की संस्कृति। देश की कानून पीठ ने कहा कि इस देश की जनता को भूख से न मरने का मूलभूत अधिकार दिया जाए। देश के मुखिया ने सांत्वना दी कि हमने इस देश की भूखी आबादी में से अस्सी करोड़ लोगों में रियायती या मुफ्त अनाज बांट दिया है, जरूरत पड़ी तो और बांट देंगे।
महामारी के प्रकोप से बेकारी बढ़ गई। अब भी रोजगार की नीति तो नहीं लौटी, हां भूख से मरने न देने की गारंटी और उसकी हथेलियों पर नौकरी की सरसों मनरेगा से उठी और समस्या सुलझाने का निष्फल प्रयास करने लगी। इसने लार्ड केंज की रोजगार की नीति की तरह अर्ध रोजगार का हल निकाला। बेकारों को पहले गड्Þढे खोदने और फिर उनको भरने के काम पर लगा दो।
अगर सब कुछ बढ़िया और ठीक चलेगा, तो वे क्रांति और बदलाव का संदेश कैसे देंगे? माफिया, डान और नैतिकता की खिल्ली उड़ाने वाले लोग बढ़ रहे हैं तो क्या? वह समाज में पतन के नए गड्ढे ही पैदा कर रहे हैं! नेताओं का काम कितना बढ़ गया? उनके लिए इन सब संदर्भों में नए और अच्छे दिन लाने का काम पैदा हो गया। भूख और बेकारी का क्या है! इसका उपचार तो दान संस्कृति कर तो रही है!