निधि गोयल
यह अटल और कटु सत्य है। परिवर्तन यानी बदलता वक्त, बदलता समाज, बदलते नियम और कायदे। आज जिस समाज में हम अपनी जिंदगी बिता रहे हैं, इसमें रिश्तों और परिवार की अहमियत न के बराबर हो चुकी है। मसलन अगर देखा जाए तो पहले जहां किसी संयुक्त परिवार में किसी के साथ दुर्घटनावश कोई अनहोनी होती थी तो उसे संभालने के लिए पूरा परिवार संयुक्त रूप से संगठित रहता था।
वहीं आज अगर ऐसा किसी के साथ हो तो स्थिति अलग है। भारत में भी बहुत सारे परिवार एकल रूप से ही रह रहे हैं। उनके साथ पेश मुश्किलों से आमतौर पर उन्हें खुद ही निपटना पड़ता है। शायद उनका परिवार एक-दो दिन तो साथ दे, मगर उसके बाद उन्हें खुद ही संभलना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कोरोना काल का है, जिसमें असंख्य परिवारों में मौतों का मातम बरसा और उन्हें संभालने के लिए उनका अपना परिवार भी सामने नहीं आया। कितने ही परिवार बिगड़ गए और अनगिनत बच्चों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
ऐसा लगता है कि यही महामारी अगर उस समय होती, जब सभी परिवार संयुक्त रूप से हर सुख-दुख बांट कर बराबरी के तौर पर रहते थे, तब शायद इसका इतना बुरा असर देखने को नहीं मिलता। जिन बच्चों को ठोकरें खाने की नौबत आई, उनके सिर पर आशियाना और अपनों का साथ बना रहता। ठीक है कि इस बार इसके पीछे एक डर काम कर रहा था, मगर संवेदनाएं कहां चली गई थीं?
आज हम जिस समय में जी रहे हैं, वहां शादी के मायने सिकुड़ गए हैं। जरा-जरा-सी बात पर संबंध टूट जाते हैं। तलाक की कितनी ही अर्जियां अदालतों की फाइलों में दबी पड़ी हैं। आज शायद ही ऐसा कोई परिवार होगा, जिसमें घर के बड़ों को पहले जैसी इज्जत बख्शी जाती हो। घर की इज्जत और मान-मर्यादा की परिभाषा बदल चुकी है।
पहले जहां संयुक्त परिवारों में कमाने वालों की संख्या कम होने के बावजूद घर के सारे खर्चे पूरे हो जाते थे और पूरा परिवार खुशी-खुशी अपनी जिंदगी बिताता था, वहीं आजकल पति-पत्नी के बराबर कमाने के बावजूद घर के खर्चे पूरे करना टेढ़ी खीर हो चुकी है। इसकी वजह शायद उपभोक्तावाद की बढ़ती भूख भी है। वरना जीने के लिए सुविधाओं का कितना विस्तार चाहिए?
दिखावे की जिंदगी में बर्बाद होता पैसा जिंदगी के मायने और सीमाएं बदल रहा है। सबको इसकी लत लग रही है कि अब अपनों से अपनापन कम, पराए के आगे दिखावे का ढोंग ज्यादा करना है। कभी बच्चों को प्यार और पढ़ाई के साथ रोजमर्रा की जिंदगी के जरूरी काम भी सिखाए जाते थे और वे उत्साह से करते भी थे, वहीं आजकल के बच्चों से कोई जरूरत पड़ने पर भी पानी के ग्लास की उम्मीद करना मुश्किल है। हालांकि बच्चों को ऐसा उनके अभिभावक ही बनाते हैं। नौकरशाही का जमाना है तो पति-पत्नी, दोनों को काम पर जाना है। अब बच्चे का अपना कोई साथ नहीं। उसे संभालने के लिए पेशेवर लोगों का सहारा लिया जाता है। वहां उसे कितना क्या मिलेगा?
पहले अपने बेहद करीबी लोगों और अपने बड़ों के आगे अपना दुख-दर्द बांटकर दिमाग हल्का हो जाता था, वहीं आजकल इसके लिए भी मनोचिकित्सकों का सहारा लेने का जमाना आ चुका है, जो किसी को जरा-सी परेशानी होने पर भी ढेरों दिमागी दवाइयों के बोझ तले दबा देता है। इससे परेशानी कितनी खत्म होती है, पता नहीं, लेकिन इसकी जगह दवाइयों के दुष्परिणामों की वजह से दूसरी मुश्किलें पैदा हो जाती हैं।
अपने सबसे करीबी दोस्तों या जिसे प्रेम करते हों, उनके प्रति बर्बरता करने से लोग नहीं हिचक रहे। क्या मानसिकता पनप रही है! त्योहारों का रूप-स्वरूप भी अब पूरी तरह से परिवर्तित हो चुका है। इसमें से सौहार्द गायब होता जा रहा है। समझ में नहीं आता कि यह कैसा परिवर्तन है? इन सब फिक्र के बीच अभी भी लगता है कि बहुत कुछ बचाया जा सकता है।
शायद हम वह आखिरी पीढ़ी हैं, जिसने त्योहारों के प्यारे हुड़दंग भी देखे हैं और उन्हीं त्योहारों पर मातम-सी शांति। अगर हमने संयुक्त परिवार का अहसास साथ रखा है तो एकल परिवार के दायरे में भी जूझ रहे हैं। अपनों के साथ छतों पर या आंगन में बैठे हैं और साथ ही गर्मी के मौसम में रात में पानी छिड़क कर बिस्तर ठंडा किया है। आज हम बंद कमरों में सिमट कर रह गए है। गाहे-बगाहे ही रिश्तेदारियों का जीवन मिल पाता है।
हालांकि अभी भी बचा सकने का वक्त है, अगर कोई बचाना चाहे तो। हमारी अगली पीढ़ी को शायद कुछ नसीब हो सके हमारे कुछ पल। मोबाइल के स्क्रीन में बंद जिंदगी से भी आगे बहुत कुछ है, यह बताना और समझाना बहुत जरूरी है। देर होने से पहले यह समझना जरूरी है कि संवाद को समझाने और उसे समझने की एक उम्र हुआ करती है। काश कि वह उम्र अभी बची हो!