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विविधता की खूबसूरती, एक ही कालोनी में अलग-अलग संस्कृति, धर्म और नस्ल के लोग एक-दूसरे के बने पड़ोसी

अलग-अलग धर्मों से बने ‘इंद्रधनुष’ भारत में शायद ही कहीं दिखाई देंगे। भारत के आधुनिक कहे जाने वाले शहरों में भी ब्रिटेन के ‘रेनबो’ जैसे इलाके नहीं मिलते हैं। जितना कुछ दिखता है, उसके मुताबिक ब्रिटेन को दुनिया के आधुनिक देशों में से एक माना जाता है।

Rishi Sunak, Britain
स्कूली बच्चों के साथ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक। (ट्विटर / ऋषि सुनक)

अमित चमड़िया

इंद्रधनुष केवल रंगों के मिश्रण की बात नहीं करता है, इसके नाम से एक जीवंतता का बोध होने लगता है। बचपन से हमने इसे जैसा देखा और समझा है, उसके मद्देनजर कहें तो इसे देखते ही मन प्रफुल्लित हो जाता हैं। इस सात रंगों के मिश्रण से जो नयनाभिराम दृश्य बनता है, उसे हर कोई देखना चाहता है। दरअसल, इंद्रधनुष रंगों के मेल-मिलाप से बना एक खूबसूरत अहसास और प्रकृति प्रदत्त मनभावन नजारा है।

एक घर श्वेत परिवार का है, तो बगल वाला दूसरा घर अश्वेत परिवार का है

हाल ही में ब्रिटेन के शहरों के आवासीय इलाकों के बारे में सुर्खियों में आई एक खबर में बताया गया था कि वहां अलग-अलग संस्कृति, धर्म और नस्ल के लोग एक ही कालोनी में एक-दूसरे के पड़ोसी बनकर रहने लगे हैं। अगर एक घर श्वेत परिवार का है, तो बगल वाला दूसरा घर अश्वेत परिवार है। इसके बाद किसी तीसरे घर मे एशिया से वहां गया कोई परिवार रहता है। ऐसे पड़ोस से बनी रिहाइश को ‘रेनबो’ यानी इंद्रधनुषी समूह का नाम दिया गया।

‘डायवर्सिटी इंडेक्स’ के मुताबिक, ब्रिटेन में बीते दो दशक में पड़ोस की विविधता दोगुनी हुई

जिस तरह इंद्रधनुष में अलग-अलग रंग एक साथ दिखाई देते हैं, तभी उनकी अहमियत दर्ज होती है, ठीक उसी तरह अलग-अलग संस्कृति के लोग वहां मिल-जुल कर रह रहे हैं, इससे उनके बीच नस्लीय या फिर धार्मिक अलगाव और इससे उपजी भिन्नता की धारणाएं लगातार घट रही हैं। ‘डायवर्सिटी इंडेक्स’ यानी विविधता सूचकांक के मुताबिक, ब्रिटेन में बीते दो दशक में पड़ोस की विविधता दोगुनी से अधिक हो गई है।

यह प्रयोग ब्रिटेन में हर क्षेत्र में किया जा रहा है। पुलिस बल में भी अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग भर्ती किए जा रहे हैं। एक अन्य शोध के मुताबिक, अगर दफ्तरों में अलग-अलग संस्कृति के लोग साथ मिलकर काम करते हैं तो उस कंपनी या समूह में पैंतीस फीसद अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। यह नतीजा चौबीस सौ कंपनियों पर किए गए शोध के निष्कर्ष हैं।

अब इसी संदर्भ को भारतीय समाज की कसौटी पर देखें तो इस तरह के सकारात्मक बदलाव मुश्किल से नजर आते हैं। हम ब्रिटेन से बहुत-सी चीजें सीखते हैं या फिर उनकी नकल करते हैं। खासतौर पर भौतिक संस्कृति के मामले में। लेकिन वैसी किसी चीज को नहीं अपनाते हैं, जो हमारे जीवन में विविधता के रंग भर सके। आज भी भारत के शहरों या गावों में कहीं किसी जाति विशेष के नाम पर मोहल्ले और आवासीय कालोनी का नाम दिख जा सकता है।

सासाराम में खास जाति के नाम पर जानी जाने वाली कालोनी में सिर्फ उसी जाति के लोग रहते हैं

उदाहरण के तौर पर बिहार के शहर सासाराम में एक खास जाति के नाम पर जानी जाने वाली कालोनी में सिर्फ उसी जाति के लोग रहते हैं। यों भी, किसी गांव में जातियों के नाम से टोले-मुहल्ले के बारे में पता लगाना कोई छिपी बात नहीं है। यहां अगर कोई व्यक्ति यह बताता है कि मैं इस शहर के फलां मोहल्ले में रहता हूं तो केवल उस मोहल्ले के नाम से ही वहां रहने वाले व्यक्ति की जाति का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी तरह किसी धर्म विशेष के लोग आमतौर पर किसी एक ही क्षेत्र में रहते हैं।

अलग-अलग धर्मों से बने ‘इंद्रधनुष’ भारत में शायद ही कहीं दिखाई देंगे। भारत के आधुनिक कहे जाने वाले शहरों में भी ब्रिटेन के ‘रेनबो’ जैसे इलाके नहीं मिलते हैं। जितना कुछ दिखता है, उसके मुताबिक ब्रिटेन को दुनिया के आधुनिक देशों में से एक माना जाता है। इससे यह तो स्पष्ट है कि विविधता अपने आप में एक आधुनिक अवधारणा है और ब्रिटेन में चर्चित ‘रेनबो’ इसका परिचायक है। भारत में ऐसा संयोग कहीं बन जाता होगा, लेकिन इस तरह की किसी अवधारणा को अब तक व्यापक सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है।

यहां का समाज धर्म, जाति, उपजाति, गोत्र और न जाने कितने इस तरह के नामों के आधार पर खंडित है। जाति और धर्म के नाम पर कट्टरता बढ़ती ही जा रही है। समाज के लगभग सभी क्षेत्र में इंद्रधनुष जैसी कोई चीज नहीं दिखाई देती है। कुछ क्षेत्रों में थोड़ी बहुत विविधता जो जातीय और धार्मिक स्तर पर दिखाई देती है, वह संविधान प्रदत आरक्षण की वजह से है। जिस क्षेत्र में आरक्षण का कानून लागू नहीं है, वहां आमतौर पर सामाजिक विविधता के रंग नहीं दिखते।

हम आकाशीय इंद्रधनुष को खूब निहारते हैं और प्रसन्नचित होते हैं। वह भी तब, जबकि यह इंद्रधनुष क्षणिक होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जिस इंद्रधनुष यानी ‘रेनबो’ से पूरा समाज खुशहाल हो जाएगा, जिसका प्रभाव और वह खुद भी स्थायी होगा, उसे अपनाने से हम परहेज करते हैं। भारतीय समाज में ‘अनेकता में एकता’ का दावा तो किया जाता है, लेकिन वास्तविकता अलग है। ऐसी स्थिति में यहां इस तरह की अवधारणा को जमीनी स्तर पर हर क्षेत्र में अपनाने की जरूरत है।

निश्चित रूप से धरातल पर का यह ‘रेनबो’ आकाशीय इंद्रधनुष से ज्यादा खूबसूरत दिखेगा, समाज को एक नई ऊंचाई प्रदान करेगा और इससे जातीय और धार्मिक कट्टरता धीरे-धीरे कम हो जाएगी। हम मुगलकालीन और ब्रिटिशकालीन नामों को तो बदल रहे हैं, लेकिन उन प्रतीकों में बदलाव नहीं ला पा रहे, जो धरातल पर ‘इंद्रधनुष’ बनने से रोकते हैं।

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First published on: 21-03-2023 at 07:13 IST