प्रभात कुमार
सामाजिक समारोहों में विवाह और आयोजन दो अलग-अलग बातें होती हैं। विवाह कहीं भी, किसी भी धार्मिक स्थल पर संपन्न हो सकता है, लेकिन अगर आयोजन में प्रीति भोज शामिल हो तो उचित जगह जरूरी है। वैवाहिक आयोजन में बने पकवान खाने के लिए होते हैं और पहने हुए वस्त्र दिखाने के लिए। विवाह में शामिल होने वाले दूल्हा-दुल्हन, निकट संबंधी और मित्रों के खाने-पीने और खास वस्त्र पहनने की महत्ता है। सिर्फ खाना खाने जाने के लिए भी आम वस्त्र धारण नहीं किए जाते। विशेषकर युवतियों और महिलाओं द्वारा रोजाना पहने जाने वाले परिधानों को उस दिन तवज्जो नहीं मिलती।
अमीरी और गरीबी के बीच फर्क साफ
इस मामले में लकीर की फकीरी जारी है। कुछ परिवारों में वस्त्रों को ज्यादा महत्ता नहीं भी दी जाती। निम्न और मध्य वर्ग परिवारों में विवाह के संदर्भ में व्यंजनों की पसंद लगभग समान होती है। ऐसे ही पकवान संपन्न परिवारों की शादियों में भी शामिल होते हैं। हां, सामग्री और पकाने के कारण थोड़ा स्तर, स्वाद और विविधता का फर्क तो रहता ही है!
‘बुफे’ शैली में परोसा गया भोजन ज्यादा होता है नष्ट
आजकल किसी विवाह में खाना आमतौर पर ‘बुफे’ शैली में परोसा गया होता है। जिन लोगों के वस्त्र बताते हैं कि वे विवाह में तशरीफ लाए हैं, उनमें से अधिकतर की थाली देखकर लगता है कि पूरे भूखे पेट आए हैं और शगुन के पूरे पैसे वसूल कर जाएंगे। वे अपनी थाली भर लेते हैं और जब पसंद नहीं आता या खाया नहीं जाता तो छोड़ देते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे में बहुत खाना व्यर्थ जाता है और फेंका जाता है। मानते सभी हैं और कहते भी रहते हैं कि खाना उतना लीजिए, जितना खा सकें।
पहले चख लें तब और लें, लेकिन इस महत्त्वपूर्ण मामले में अपने गिरेबान में झांकने की तकलीफ गवारा नहीं की जाती। यह उसी जमीन की बात है, जहां करोड़ों लोग रोज भूखे सोते हैं। देश की बात न करें तो जिस क्षेत्र, शहर, गांव या मोहल्ले में खाना खिलाया जा रहा है, वहां मेहमानों से यह गुजारिश लिखित रूप में खाना खाने से पहले की जानी चाहिए कि वे जी भरकर जरूर खाएं, लेकिन कृपया खाना प्लेट में न छोड़ें।
इस तरह का संदेश सामाजिक मीडिया मंच पर निरंतर दिया जाना चाहिए। हालांकि देश के राजनीतिक और सामाजिक नायक यह उपदेश देते रहे हैं, लेकिन बदलाव वास्तव में आता नहीं है। विवाह के दौरान अगर मेहमान इस संदर्भ में आपस में आग्रह करेंगे तो पूरी आशंका है कि बुरा जरूर माना जाएगा। यह आशंका हमारा अंदाजा भी हो सकता है कि ऐसा होगा, लेकिन इस बारे शुरुआत करना बहुत जरूरी है।
आज के माहौल के मुताबिक यह दूसरे के गिरेबान में झांकना माना जाएगा, लेकिन इस विनम्र दखल के बिना ‘हमें क्या लेना’ वाली सोच को अनचाहा बल मिल रहा है। सब लकीर के फकीर बने हुए हैं। शादी के निमंत्रण पत्रों की बात करें तो जिंदगी भर व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर अक्सर हिंदी में ही बतियाने वाले परिवार भी अंग्रेजी में ही निमंत्रण पत्र छपवाते हैं। उन्हें हिंदी में निमंत्रण पत्र भेजने में शर्म महसूस होती है। लकीर यह है कि हिंदी हमारे दिमाग में जमी धूल के नीचे अभी भी दबी पड़ी है।
दशकों से आर्थिक रूप से संपन्न लोग सामाजिक आयोजन, विशेष कर विवाहों में वैभव आधारित आकर्षक लकीर खींचते हैं और दूसरे लोग अपनी सामर्थ्य से बाहर निकल कर उस लकीर के प्रभाव और लावण्य में फकीर होते रहते हैं। इस संदर्भ में बहुत जरूरी है कि अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार ही विवाह और विवाह का आयोजन हो। विवाह तो सादगी से भी संपन्न हो सकता है। अगर समाज के कुछ लोगों को दावत देना चाहते हैं (जिसमें उन्हें दिया शगुन भी लौटना है) तो वह लकीर के फकीर बने बिना समझदारी से आयोजित की जा सकती है। उचित और प्रशंसनीय यह रहेगा कि दावत में खाने के स्वादिष्ट होने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इसके लिए कारीगर हलवाई ढूंढ़ा जाता है जो अपने हुनर और साख के हिसाब से मेहनताना लेता है और लोग देते हैं।
अच्छे कारीगर दूसरी जगह पर भी जाते हैं। फिर खाना ‘बुफे’ शैली में खिलाया जाना ही जरूरी क्यों हो, जमीन पर आरामदायक पंगत में बिठाकर भी परोसा जा सकता है और खाने में स्वाद हो तो वाहवाही सुनिश्चित है। यह भी जरूरी नहीं कि भोजन में व्यंजन ज्यादा हों। किसी समय में खाना पत्तल और दोने में परोसा जाता था और चावल, पूरी, मटर-पनीर, दही-बूंदी और कद्दू ही बनाया जाता था। कई शादियों में कद्दू का स्वाद बहुत लाजवाब होता था। इतना कि कद्दू कम पड़ जाता था और मेहमान मांगते रह जाते थे।
हमारा नकलची समाज हमेशा पहल करने वाले की इंतजार में रहता है। वक्त भी चाहने लगा है कि आम वैवाहिक खानपान शैली में कुछ ठोस बदलाव हों। बदलाव करने वाला ही नई शुरुआत करता है। नई लकीर खींच दी जाएगी तो उस लकीर के फकीर होकर बहुत लोग अमीर हो सकते हैं।