हाल ही में गांव के एक पड़ोसी से बात हो रही थी। उन्हें इस बात से परेशानी थी कि उनकी आदत की एक चीज उनसे छीन ली गई है और फिलहाल वे कई बार बेचैन हो जाते हैं। उनकी यह आदत की चीज शराब थी, जिसकी गिरफ्त में वे अपनी बहुत सारी जिम्मेदारियों तक को भूल गए थे। मैंने कहा कि अगर भविष्य में किसी स्थिति में आपके बच्चों को भी आपकी ही तरह इस हालत से गुजरना पड़े तो आपको कैसा लगेगा! इस पर वे चुप लगा गए।
समस्या यही है कि नशे के लिए किसी आदत का बचाव करते हुए कई बार हम परेशान तो होते हैं, लेकिन नहीं चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी उसके शिकार बनें। लेकिन यह कैसे होगा? यह छिपा नहीं है कि शराब की दुकानों की आम उपलब्धता और उस तक आसान पहुंच किस तरह वैसे लोगों को भी नशे की जद में ले लेती है, जो कभी उससे दूर रहे थे। यहां तक कि किशोर भी इससे नहीं बच पाते। बिहार में यही स्थिति हो गई थी। लेकिन पिछले महीने बिहार में शराब पर पाबंदी के बाद से हालात तेजी से बदलते दिख रहे हैं। अब साधारण लोगों से इस मसले पर बातचीत से यही लगता है कि कैसे समाज का ध्यान प्राथमिक जरूरतों के बजाय दूसरी चीजों में भटकाया जाता है।
सिर्फ दो महीने के भीतर ही कई परिवारों के पुरुषों के शराब से दूर होने के बाद आर्थिक हालत में सुधार का रास्ता खुलता दिख रहा है, घर के सदस्यों और परिजनों के साथ उनका सान्निध्य बढ़ा है। ज्यादा अहम यह है कि अपने परिवारों की स्थिति बेहतर करने के लिए इन लोगों की आर्थिक सक्रियता भी बढ़ी है। बस्तियों, मोहल्लों, गांवों और चौक-चौराहों पर अफसोस के साथ इन बातों की चर्चा होने लगी है कि किसने इस शराब के चक्कर में कितना नुकसान किया है। न सिर्फ आर्थिक रूप से, बल्कि सामाजिक कसौटी पर क्या-क्या खो गया था! आए दिन आर्थिक रूप से विपन्न घरों और इलाकों में जहां रोज-रोज शराब पीने के बाद के दृश्य-श्रव्य प्रभावों को लेकर सभ्य कहे जाने वाले समाजों के बीच कैसी प्रतिक्रिया होती रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन शायद ही कभी ऐसा उदाहरण आता है जब सभ्य और संभ्रांत तबकों की ओर से सरकार पर सामाजिक सुधार का कोई दबाव बनाया जाता हो या फिर अपनी ओर से कोई जागरूकता अभियान चलाया जाता हो।
कुछ लोग ‘लोकतांत्रिक पसंद’ की दलील पर यह कहते हैं कि कौन क्या खाएगा, क्या पिएगा, यह कोई सरकार कैसे तय कर सकती है। लेकिन सवाल है कि जिस चीज के खाने-पीने के असर का हिसाब सामने हो, न सिर्फ किसी व्यक्ति, बल्कि समूचे परिवार को इसका खमियाजा उठाना पड़ता हो, उसे नियंत्रित या प्रतिबंधित करने के लिए किसी सरकार को अपनी ओर से पहल क्यों नहीं करनी चाहिए! आखिर सरकार टैक्स की नीतियों से लेकर यातायात नियम और दूसरी तमाम व्यवस्थाएं तय करती ही है और इसके पीछे जन कल्याण के ही सिद्धांत होते हैं। फिर इस हकीकत से मुंह कैसे मोड़ा जा सकता है कि जब सिगरेट पीने वाला धुएं से दूसरों को परोक्ष धूम्रपान का भागी बनाता है तो वह अपने साथ-साथ दूसरे लोगों की सेहत को भी खराब करता है। बीमारी के बाद परिवार के सदस्य, डॉक्टर, नर्स उसकी सेवा करते हैं तो उन तीमारदारों की पीड़ा को लेकर कोई चिंता है या नहीं! जो लोग मृत्यु की ओर जाते किसी इंसान के लिए अपना जीवन लगाते हैं, उनके जनतंत्र और अधिकारों के बारे में कौन सोचेगा! क्या शराब का इससे इतर कोई दूसरा हासिल है?
खासतौर पर महिलाओं से पूछा जाए तब पता चलता है कि शराब और नशे को लेकर वे क्या सोचती हैं और कैसे इस समस्या ने सबसे ज्यादा उनकी जिंदगी को तबाह किया है। यही वजह है कि न केवल बिहार में, बल्कि कई दूसरे राज्यों में भी शराब के खिलाफ जो मुहिम चली, उसकी अगुआई महिलाओं ने ही की। आज अगर महिलाएं नशे का पूरी तरह नाश चाहती हैं तो इसके पीछे उनका दुख ही है जो कभी एक पितृसत्तात्मक समाज के दिखावे का नतीजा होता है तो कभी झूठी शान का। दरअसल, शराब का स्वाद उस सामंती व्यवस्था की शान की तरह है जो अपनी जड़ों से महिलाओं और कमजोर तबकों को सिर्फ नुकसान पहुंचाता है।
यह छिपा हुआ नहीं है कि शराब के सेवन से बीमार व्यक्ति की ओर से उत्पन्न तमाम व्यवधान, झगड़े, शोर, गाली-गलौज से परिवार से लेकर आस-पड़ोस की शांति नष्ट होती है, एक नकारात्मक संस्कृति का विकास होता है। शराब पर पाबंदी कानूनी स्तर पर तो अमल और व्यवस्था का सवाल है, लेकिन क्या इसके एक संस्कृति में तब्दील हुए बिना इसके ठोस और स्थायी नतीजे मिल सकेंगे? जहां से किसी नई सुबह के लिए कानूनी पहल होती है, वहीं से सांस्कृतिक स्तर पर समाज को बदलने की भी उम्मीद होगी।
(राजेश्वर प्रसाद जायसवाल)