पढ़ाई में खेती
दिल्ली विश्वविद्यालय में अस्सी कॉलेज भी हैं। क्या किसी में भी कृषि नहीं पढ़ाई जा सकती है?

अपनी शिक्षा व्यवस्था की परतें जितना चकित करती हैं उतना ही क्षुब्ध भी। एक तरफ चाहे हजारों रुपए प्रतिमाह फीस और दूसरी तरफ दलिया, चावल के मिड-डे मिल के ध्रुवांत हों या पढ़ाए जाने वाले विषयों की विभिन्नता और प्रचुरता दोनों। लेकिन दिल्ली के स्कूल में खेती की जानकारी मेरे लिए भी एकदम नई थी। तुरंत मेरी उत्सुकता किताब देखने को हुई। उत्तर प्रदेश में छठी से आठवीं तक सत्तर के दशक में कृषि एक विषय के रूप में पढ़ा था। उस किताब को मैं वर्षों तक दिल्ली अपने साथ इसलिए रखे रहा कि पिता का व्यवसाय खेती लिखने के कारण नौकरी के साक्षात्कार में अक्सर एकाध प्रश्न खेती से संबंधित जरूर पूछ लिया जाता था। अब तो साक्षात्कार में शायद ही कोई खेती-किसानी जानने वाला बैठता है, वहां होते हैं अमेरिका के शहर, गलियों या वर्ड्सवर्थ, चॉसर, इलियट के मुग्ध प्रशंसक।
बड़ी काम आती थी यह किताब। फसलों के साथ-साथ भैंस, गाय की किस्में उनके फोटो सहित, उनकी बीमारियां, फसलों में लगने वाले कीड़े, कीटनाशक और हरित क्रांति, गेहूं व धान की किस्में आदि। लेकिन ग्यारहवीं की इस किताब ने तो बहुत निराश किया। कृषि के नाम पर विवरणिका भर। क्या एनसीआरटी या सीबीएससी या दिल्ली सरकार ने कोई किताब नहीं बनाई, क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज में कृषि विषय है। सभी का उत्तर ना में था। चिल्ला स्कूल के प्राचार्य भी इन बातों को जानकर उतने ही दुखी थे।
देश की लगभग सत्तर प्रतिशत जनता खेती के काम में जीवन बिताती है। सबसे बड़ा रोजगार नियोक्ता। दुनिया भर में दुग्ध उत्पादन, गेहंू आदि में नंबर एक। लेकिन केंद्रीय स्तर पर पठन-पाठन या अच्छी किताबें एक नहीं।
और कुरेदने से पता चला कि दिल्ली के लगभग साठ स्कूलों में ग्यारहवीं-बारहवीं में कृषि नाम का विषय है और देहात के ज्यादातर स्कूलों में इसके पढ़ने वाले छात्र भी हैं। खुशी हुई यह जानकर कि किसानी से जुड़े कुछ बच्चे और खेती में काम करने वाले उनके मां-बाप, मजदूरों तक कुछ तो व्यवस्थित जानकारी पहुंचेगी। हलांकि यह भी सच है कि ऐसी पुस्तकें लिखने वाले शहरी जीवन तक सीमित रहे हैं तो उस किसान के लिए ये पुस्तकें बहुत काम की भी नहीं होतीं जिसका ज्ञान सैकड़ों वर्षों के परंपरागत अनुभव पर टिका है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रकृति के साथ रह कर प्रामाणिक हुआ है। फिर भी विज्ञान, नई खोजों, मौसम, नए अच्छे कीटनाशक, नई प्रजातियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। साठ के दशक में हरित क्रांति न आई होती तो हम खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न हुए होते।
एनसीईआरटी दिल्ली में है और यह स्कूल भी। पिछले दिनों सैकड़ों की टोलियों ने नया पाठयक्रम बनाया। फिर ‘कृषि’ विषय क्यों छूट गया। इससे पहले भी क्यों छूट गया था। क्या यह विषय भारत की अर्थव्यवस्था को देखते हुए इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इसकी जानकारी हर बच्चे को चाहिए। क्या गांव व किसान सिर्फ पिकनिक, दरिद्रता, बीमारी आदि के लिए ही याद आते हैं, या ज्यादा से ज्यादा पर्यटकों को बताने के लिए कि पीला-पीला जो दिखाई दे रहा है वह सरसों है और यह झाड़ीनुमा फसल गन्ने की। भला हो पी साईनाथ जैसे पत्रकारों का, जिन्होंने विदर्भ, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक समेत देश भर में लाखों किसानों की आत्महत्याओं के बारे में लिखा। बैगन व कपास की उन कृत्रिम, परिवर्तित फसलों के बारे में बताया जिसके जाल में भारतीय कृषि फंसती जा रही है। पिछले दिनों मीडिया में इस मुद््दे पर बहस भी चली। फिर भी कृषि की अच्छी किताबें क्यों नहीं बनाई गर्इं। क्या इसलिए कि एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ने वाले ज्यादातर शहरी स्कूलों तक सीमित हैं और इन्हें बनाने वाले भी? हिंदी लेखक संजीव का उपन्यास ‘फांस’ जरूर किसानों की आत्महत्याओं पर है, पर यह विषय की भरपाई नहीं कर सकता। आश्चर्य कि इतिहास पर तो पुरातनपंथी से लेकर सभी हाथ आजमाना चाहते हैं, मौजूदा समय की खेती, किसानी पर नहीं। वाकई गड़े मुर्दे उखाड़ना, खेत गोड़ने व खेती को जानने से ज्यादा आसान है।
ऐसा नहीं कि कृषि की जानकारी वाली इन किताबों के पाठक नहीं हैं। पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक पुस्तकालय में जिन पुस्तकों की सबसे ज्यादा मांग शिक्षक और बच्चों ने की वे कृषि से संबंधित किताबें थीं। अपनी भाषा हिंदी में। वह चाहे दूध की कहानी हो या फसलों की मुख्य बीमारियों, कीटनाशकों, नई फसलों या जानवरों की बीमारियों या उनके रखरखाव संबंधी प्रश्न, माना कि कुछ जानकारी भूगोल या विज्ञान विषयों से पूरी हो जाती है। लेकिन जब पत्रकारिता, मीडिया, फिल्म, फैशन के बारे में हिंदी में किताबों का अंबार है तो दो-चार खेती पर भी होनी चाहिए। शुक्र है कि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण के राज्यों में खेती की किताबें भी प्रादेशिक भाषाओं में हैं और उनमें मासिक पत्रिकाएं भी नियमित रूप से निकलती हैं।
अंगुली दिल्ली स्थित विश्वविद्यालयों की तरफ भी उठती है। पांच तो मशहूर विश्वविद्यालय हैं। जेएनयू, जामिया, आंबेडकर, इंद्रप्रस्थ और दिल्ली विश्वविद्यालय। दिल्ली विश्वविद्यालय में अस्सी कॉलेज भी हैं। क्या किसी में भी कृषि नहीं पढ़ाई जा सकती है? यहां अर्थशास्त्र के सभी रूप हैं- बिजनेस, अंतरराष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय। इंजीनियरिंग के पचासों रूप हैं। कुछ समय से तरह-तरह के बदलाव की हवा बह रही है। सेमेस्टर प्रणाली, चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम, ग्रेडिंग प्रणाली और अब क्रेडिट का शोर। अफसोस कृषि पढ़ाना किसी की भी प्राथमिकता में नहीं रहा। शायद किसान और गांव भी। कृषि मंत्रालय के बदले नाम में ‘किसान कल्याण’ जुड़ गया है। नए बजट में भी किसानों की बात की गई। उम्मीद है, खेती-किसानों के सभी आयामों पर तन-मन-धन से काम होगा। देश में सबसे ज्यादा रोजगार तो कृषि में ही है।