राष्ट्रपति शासन क्यों
अरुणाचल प्रदेश में सरकार के तख्तापलट के बाद मणिपुर में भी राजनीतिक संकट देखने को मिला और अब उत्तराखंड में भी सरकार पंजे से फूल होती दिख रही है।

जब राज्यपाल ने हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए 28 मार्च तक का समय दिया था तो उत्तराखंड में केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने की इतनी जल्दबाजी क्यों? सरकार का यह कदम दिखाता है कि भाजपा का सत्ता के प्रति कितना मोह है। अरुणाचल प्रदेश में सरकार के तख्तापलट के बाद मणिपुर में भी राजनीतिक संकट देखने को मिला और अब उत्तराखंड में भी सरकार पंजे से फूल होती दिख रही है। हमारे देश में यह कोई नया खेल नहीं है; हमारी राजनीति दल बदलने वाले दिग्गजों से भरी है। ऐसे मामलों में कई बार राज्यपालों की भूमिका भी शक के दायरे में आती है क्योंकि राज्यपाल केंद्र का नुमाइंदा होता है। पूर्ववर्ती सरकारें भी राज्यपालों का बखूबी इस्तेमाल करती आई हैं। नई सरकार के आने के बाद जब सभी राज्यपालों को बदला गया तो इन सब घटनाओं का अंदेशा हो गया था।
देश में आयाराम गयाराम पर अंकुश लगाने के लिए दल बदल कानून तो है लेकिन उसका यह प्रावधान कि एक तिहाई सदस्य अलग होकर अपना दल बना सकते हैं खरीद-फरोख्त को आमंत्रित करता है। यह नियम केवल सांसदों और विधायकों पर ही लागू होता है जबकि पार्षदों, प्रधानों के मामले में ऐसा कोई कानून नही है। इस कारण हर बार निगमों और परिषदों में लोग जीतने के बाद इधर उधर होते हैं और वहां की खरीद-फरोख्त तो जगजाहिर है।
इस सब पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक है कि दल बदल कानून में संशोधन किए जाएं और उसे पंचायत स्तर तक लागू किया जाए। यह प्रावधान किया जाए कि कोई भी सदस्य जिस भी चिह्न के साथ चुनाव जीत कर आया है वह अगर अलग होता है तो उसकी सदस्यता रद्द कर दी जानी चाहिए। इससे जनता को भी राहत मिलेगी और देश में राजनीतिक अस्थिरता से भी बचा जा सकेगा। (सूरज कुमार बैरवा, सीतापुरा जयपुर)
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होली पर हिंसा
होली चली गई मगर अपने रंगों की कहीं-कहीं अमिट छाप छोड़ गई है। समय अनुसार बदलाव जरूरी है। यह सृष्टि का नियम भी है। अब होली गंदगी, प्रदूषण, अश्लीलता, उत्पीड़न, नशाखोरी, गुंडागर्दी, जोर-जबर्दस्ती, झगड़ों और हिंसा का का प्रतीक बन चुकी है। कहने को तो इस बार महाराष्ट्र में भयंकर सूखे में सूखी होली मनाई गई, लेकिन जिस बुरी तरह लोग रंगों में डूबे हुए थे, तो क्या ऐसे में उन्हें कपडेÞ धोने और स्नान करने आदि के लिए अधिक पानी की जरूरत नहीं थी? रंग, गंदे पानी, केमिकल और कीचड़ आदि से कपडेÞ, चेहरे, दीवारें और वाहनों को कितना गंदा कर दिए जाता है जिन्हें धोने और साफ करने में कितना समय, शक्ति, साबुन और सर्फ आदि बर्बाद होता है। महिलाएं तो पत्थर जैसे पानी के गुब्बारों की शिकार होती है। देश की वर्तमान दयनीय स्थिति को देखते हुए तो नेताओं को ऐसी होली मनाना बिलकुल शोभा नहीं देता। इन्हें तो इस पर्व को अब पवित्रता के साथ वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता के कार्यों, अच्छी सभाओं, संगोष्ठियों और शानदार इनामी प्रतियोगिताओं आदि के रूप में इसे बदल कर मनाने की सख्त जरूरत है। यही सभी के लिए शोभायमान और कल्याणकारी भी है। जागृत समाज, संस्थाओं और सरकार को इस पर मिल कर कार्य करना होगा तभी यह संभव हो सकेगा। वरना तो यह सब गलत और घातक आगे भी होता ही रहेगा। (वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली)
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स्टिंग का डंक
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ही स्टिंग में नहीं फंसे हैं। ((बल्कि इससे पहले भी अनेक स्टिंग आपरेशंस सफल हुए हैं जिन्हें भ्रष्टाचारियों को भूलना नहीं चाहिये.)) दूरसंचार के साधन इतने विकसित हो गए हैं कि दुनिया के किसी भी कोने की सूक्ष्म से सूक्ष्म बातें भी पलक झपकते घर-घर उजागर हो जाती हैं। किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि लेन-देन की बात पता नहीं चलेगी। वह कहावत अब सचमुच चरितार्थ होती दिख रही है कि ‘दीवारों के भी कान होते हैं’। अब तो कान के साथ ही आंख और उससे जुड़ी तसवीर खींचने की पद्धति भी इतनी सूक्ष्म व सतर्क हो गई है कि लेन-देन करने वालों की तकदीर क्षण भर में न जाने कब उलट-पुलट हो जाए कुछ कह नहीं सकते। रावत कह रहे हैं कि उन्हें फंसाया गया है, स्टिंग एक साजिश है। सच्चाई जो हो, बेहतर यही है कि जनता ने जिस शख्स को जिस काम के लिए, विश्वास के साथ जो पद देश-सेवा के लिए सौंपा है उसे वह जिम्मेदारी से निभाए और न हो सके तो पद छोड़ कर हट जाए। (शकुंतला महेश नेनावा, गिरधर नगर, इंदौर)
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देशभक्ति का अर्थ
चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, पार्टियों के राजनेता देशभक्तों के नाम पर सियासी रोटियां न सेंकें। वे शहीद भगतसिंह थे तो ये वीर सावरकर। न जाने क्या हो गया है हमारे राजनीतिक दलों के नेताओ को कि वे पिछले कुछ वर्षों से तुच्छ व स्वार्थ की राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की हरकतों के आगे वे जनता से किए वादों और अपने घोषित इरादों को भूलते जा रहे हैं। वे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से बाज नहीं आ रहे हैं। न संसद चलने देते हैं और न ही सरकार। महंगाई मुंह बाए खड़ी है। गरीबी व बेरोजगारी सिर पर चढ़ी है। भ्रष्टाचार जन-धन को अपने आगोश में लेने में कसर नहीं छोड़ रहा है। आतंकी हरकतें दहशत फैलाने में नहीं चूक रही हैं। कानून-व्यवस्था बदहाल है। आखिर हम क्यों करते हैं जनता से चुनावों में मृगतृष्णी वादे, जबकि हमारे इरादे केवल सत्ता-सुख भोगने के होते हैं। सभी राजनीतिक दल अपनी कार्यशैली बदलें और जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप उसकी सेवा में खरे उतरें तभी हमारे शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (शकुंतला महेश नेनावा, गिरधर नगर, इंदौर)