हालांकि वैश्विक कदम उत्साहजनक है। यानी अनुकूलन की ओर एक कदम है। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन के न्यूनीकरण पर वार्ता ठोस निष्कर्ष नहीं सुझा सकी। जबकि बिना न्यूनीकरण के जलवायु परिवर्तन की विभीषिका को कम नहीं किया जा सकता। मरहम से जख्म तो भरे जा सकते हैं, लेकिन प्रश्न इस बात का है कि ऐसी दवा खोजी जाए कि जख्म न हों।
जलवायु परिवर्तन का असर तेजी से हो रहा है। हम अपनी संपदाओं को खोते चले जा रहे हैं। पूरे विश्व में औसत को पार करती भीषण गरमी। कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश और लगातार बाढ़ की बढ़ती त्रासदी तो कहीं सूखा। विश्व में हर वर्ष 12 मिलियन हेक्टयर उत्पादक भूमि सूखे के कारण बंजर होती जा रही है। इसके विपरीत जनसंख्या आठ अरब को पार कर गई।
अंटार्कटिका का विशालकाय थ्वाइट्स ग्लेशियर, जिसके पिघलने को वैज्ञानिक प्रलय का संकेत मानते थे, पिघलना आरंभ हो गया है। परिणामस्वरूप बढ़ता समुद्री जल स्तर, तटीय तथा छोटे द्वीपीय देशों पर संकट मंडरा रहा है। इसके अलावा, जीवन तहस-नहस करती चक्रवाती घटनाएं चिंता की वजह हैं। कहते थे फ्रांस में मच्छर नहीं होते हैं, लेकिन हाल ही में वहां पैंसठ लोग डेंगू का शिकार हुए।
भारतीय संदर्भ में अनियमित होता मानसून आगमन, देरी से बुआई देरी से कटाई और बिगड़ता फसलों का चक्र। हाल की जल शक्ति मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 1.2 सेमी की रफ्तार से भूजल स्तर नीचे जा रहा है। यहां तक कि पांच नदियों वाले राज्य (पंजाब) में भी भूजल सूखता जा रहा और नदियां बिना पानी के सिर्फ निशान बनती जा रही हैं।
वायु प्रदूषण इतना हो रहा है कि फेफड़े सांस लेने से जवाब दे रहे हैं। इस संपूर्ण परिदृश्य को देखकर यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भले ही हम आर्थिक उन्नति की दिशा में अग्रसर प्रतीत हो रहे हों, सही मायने में बदलते जलवायु के विरुद्ध अगर कार्बन न्यूनीकरण के प्रयास नहीं किए जाते हैं तो यह हमारे जीवन की अवनति साबित होगी।
मोहम्मद जुबैर, कानपुर</p>
संविधान के मूल्य
भारतीय संविधान ने हमें क्या-क्या दिया है, यह जानने और समझने की जरूरत है। समानता और शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार यहीं से मिले। भारतीय संविधान निर्माण के पहले किसी आदमी को आदमी के स्पर्श मात्र से धर्म नष्ट हो गया माना जाता था, वंचितों को न पढ़ने का अधिकार, न सार्वजनिक जगहों पर आने जाने का अधिकार था। लेकिन बहुत सारी कुरीतियां और अमानवीयता खत्म हुई।
लोक कल्याण ही लोकतंत्र का मुख्य उद्देश्य है। संविधान की प्रस्तावना में भी स्पष्ट किया गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक गणतंत्र है। सरकार का मुख्य कर्तव्य है कि वह संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्य- सामाजिक-आर्थिक न्याय, सामाजिक-आर्थिक समानता और सबको समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाए। दुर्भाग्य से आज शिक्षा का व्यापारीकरण हो गया है।
आबादी के अलग-अलग हिस्से के लोगों की आर्थिक हालत के मुताबिक स्कूल की कई श्रेणियां बन गई हैं। कम आय का वर्ग, मध्य आय का वर्ग, उच्च आय का वर्ग और इस मुताबिक इनके लिए स्कूल। इसके अलावा, सरकारी स्कूल, जहां आमतौर पर गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वाले परिवारों के बच्चे पढ़ते है।
स्कूल का बुनियादी ढांचा, बच्चों के स्कूल परिधान अलग-अलग होते हैं, यहां तक बात समझ आती है। लेकिन कई बार किताबें भी अलग- अलग कैसे होती हैं, जिसके कारण बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं में समान अवसर नहीं मिलता है! यह संविधान की भावना के खिलाफ है! ऐसी असमान शिक्षा व्यवस्था से आपसी भाईचारा मजबूत नहीं हो सकता है और यह देश की एकता और अखंडता के लिए भी अच्छा नहीं है।
प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना</p>