वैसे तो ज्यादातर भारतीय अपने देश की तुलना यूरोपीय देशों से, अमेरिका या आस्ट्रेलिया से करते हैं और उन्हें अपने देश में कमियां दिखाई देती हैं। आम भारतीय को स्वास्थ्य, सड़कों पर गंदगी, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, जाम, हिंदू-मुस्लिम, जातिवाद, राजनीति हर बात में भारत पिछड़ा दिखाई देता है। सरकारों से शिकायतें रहती हैं। ऐसा लगता है कि अगर देश की सीमाएं खोल दी जाएं और वीजा नीति खत्म हो जाए तो कुछ ही समय में अधिकतर लोग देश छोड़ देंगे! शिकायतें सभी को हैं, पर कोई भी यह नहीं सोचना चाहता कि देश के प्रति हमारी जवाबदेही क्या है।
सुप्रीम कोर्ट से लेकर तमाम संस्थाएं यह कह कह कर थक चुकी हैं कि पर्यावरण को बचाने के लिए दीपावली पर आतिशबाजी न करें, कोरोना से बचने के लिए बिना वजह घरों से बाहर न निकलें, लेकिन क्या मजाल कि लोग सुनें! शिकायतें करेंगे, लेकिन खुद कुछ नहीं करेंगे। अगर हम आने वाली नस्लों को एक स्वस्थ, सुंदर, प्रदूषण रहित भविष्य देना चाहते हैं तो हमें जागना होगा।
’चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली
नीतियों का हासिल
बेकाबू महंगाई (संपादकीय, 14 नवंबर) पढ़ा। आखिर क्यों सरकार के तमाम प्रयास महंगाई के दुश्चक्र को तोड़ने में नाकाम साबित हो रहे हैं। यह समझ से परे है। इसका सारा ठीकरा पूर्णबंदी पर फोड़ा जाता है। लेकिन सरकारी नुमाइंदों द्वारा बार-बार यह कहा जा रहा है कि कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए पूर्णबंदी जरूरी थी। जबकि विश्व के कई अग्रणी राष्ट्र आज की भयावह स्थिति को भांप गए थे, जिसके कारण उन्होंने अपने यहां एक साथ पूर्णबंदी नहीं लगाई।
बहरहाल, अब जो फैसले लिए गए, उसका जो असर पड़ना था, वह दिख रहा है। सवाल है कि हम कौन-सी ऐसी कारगर नीतियां अपनाएं, ताकि गरीबी और बेरोजगारी जूझ रहे आम जन को खुदरा महंगाई से राहत मिले। इस समय बाजारों में कैसे रौनक लौटेगी, जब जरूरी चीजें खरीदने में ही लोगों के पसीने छूट रहे हैं!
’मुकेश कुमार मनन, पटना, बिहार
आपदा और सबक
मानवीय संवेदनाओं के उन तलों को लेखको के सार्वभौमिक समूह ने स्पर्श करने की कोशिश हमेशा से की है, जिसमें गहरी समझ और संवेदनाओं के तार जुड़े होते हैं। विश्व साहित्य की अनेक कृतियां संज्ञानात्मक क्षमता की ओर इशारा करती हैं। जो काम कॉलेज और विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को करना चाहिए, वह आज कुछ लोग बड़े जतन के साथ कर रहे हैं। शोधार्थियों और प्रतियोगी परीक्षार्थियों को चाहिए कि वे लगातार ऐसे तमाम लोगों के काम के संपर्क में बने रहें।
लेखकों के साथ-साथ पाठकों को भी स्मरण करना भावुक कर जाता है कि कैसे दीर्घजीवियों ने समय का सदुपयोग किया। समय-समय पर में अनेक महामारियो ने मानव जीवन को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया। साहित्यिक क्रांति ने इस दर्द को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया। महामारी सिर्फ आपदा ही नहीं लाती, वह अपने साथ कुछ सबक भी दे जाती है।
’देवेश त्रिपाठी ‘राहुल’, संत कबीरनगर, उप्र