चौपाल: मुद्दों की बात
चुनाव का समय मतदाताओं के लिए निर्णायक होता है। लेकिन ऐसा देखने को मिलता है कि जनता की राजनीतिक घटनाक्रमों पर निगाह रहती है। चर्चा भी होती है। पर उनमें बेफिक्री का अंदाज रहता है।फिर चुनाव बाद दिन-प्रतिदिन दुश्वारियां झेलते लोग बात-बात पर सरकार, प्रशासन को कोसते नजर आते हैं।

आसन्न बिहार विधानसभा चुनाव को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों द्वारा सामाजिक समीकरण बैठाए जाने लगे हैं। जिस समाज में जाति का इतना महत्त्वपूर्ण स्थान हो, वहां ऐसा करना लाजिमी भी है। पर क्या सिर्फ इसके बूते ही चुनाव जीते जा सकते हैं? ऐसा ही है तो फिर विकास के क्या मायने मतलब रह जाएंगे? दरअसल, राजनीतिक दल वही करते हैं जो जन भावनाओं में परिलक्षित होती है।
चुनाव का समय मतदाताओं के लिए निर्णायक होता है। लेकिन ऐसा देखने को मिलता है कि जनता की राजनीतिक घटनाक्रमों पर निगाह रहती है। चर्चा भी होती है। पर उनमें बेफिक्री का अंदाज रहता है।फिर चुनाव बाद दिन-प्रतिदिन दुश्वारियां झेलते लोग बात-बात पर सरकार, प्रशासन को कोसते नजर आते हैं।
तब उन्हें तनिक भी भान नहीं रहता कि क्या उन्होंने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करते समय गंभीरता दिखाई थी! क्या उस समय उनके दावे और वादों की जमीनी सच्चाई जानने की कोशिश की गई थी? सवाल उठता है कि जब सरकारों का गठन सामाजिक समीकरण से ही संभव है, तो फिर विकास की तरफ ध्यान देने की क्या जरूरत? यह कितना उचित है?
’मुकेश कुमार मनन, पटना, बिहार
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