कानूनी विवादों में आंख मूंद कर इनकी सूचनाओं पर विश्वास नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इन पर दी गई सूचना अप्रमाणित व भ्रामक हो सकती है। आज कल सूचनाओं और तथ्यों के लिए अध्येताओं, व्यावसायिक कार्यक्रमों, शैक्षणिक गतिविधियों की निर्भरता लगातार ऐसे स्रोतों पर बढ़ती जा रही है। खासतौर पर शिक्षा क्षेत्र में तो विद्यार्थी धीरे-धीरे इस पर ही निर्भर होते जा रहे हैं, क्योंकि अधिकतर शैक्षणिक संस्थान अधिक से अधिक शैक्षणिक सामग्री पीडीएफ आदि के रूप में उपलब्ध करा रहे हैं।
इससे निस्संदेह शिक्षा की पहुंच (ज्ञान की पहुंच) अधिकतर लोगों तक बढ़ सकती है, लेकिन कमाई के चक्कर में बहुत-सी भ्रामक और तथ्यविहीन सामग्री भी प्रस्तुत की जा रही है। यहां तक कि यू-ट्यूब पर अनेक शिक्षक अधिक से अधिक सम्मोहक और आकर्षक वीडियो बनाने के प्रयास में तथ्यों की मूल भावना और विषय-वस्तु को भी तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा नुकसान प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों को होने की आशंका बनी रहती है, क्योंकि ऋणात्मक मूल्यांकन वाली परीक्षाओं में अधिकृत पुस्तकें ही प्रमाणित मानी जाती हैं।
आज विद्यार्थी जब कोई सूचना या जानकारी किसी आनलाइन मंच पर पढ़ता या देखता है तो उसके अंदर भी एक प्रकार की भ्रामक स्थिति पैदा हो जाती है। उसे अपने द्वारा पढ़े और देखे गए तथ्यों पर विश्वास तब-तक नहीं होता है, जब तक वह उसे कई स्रोतों से प्रमाणित न कर ले। लेकिन इससे समस्या यह है कि बच्चे का महत्त्वपूर्ण समय इसी में खर्च हो जाता है कि वह जिस ज्ञान को ग्रहण कर रहा है, वह सत्य है या फिर असत्य! इसलिए ऐसी स्थितियों से देश की भावी पीढ़ी व लोगों का बचाने के लिए ऐसे मंचों एवं सूचना स्रोतों की प्रामाणिकता के लिए सरकार को आवश्यक कदम उठाना चाहिए। साथ ही लोगों (खासकर विद्यार्थियों) को पूर्णतया सतर्क और सावधान रहना चाहिए, अन्यथा उनकी वर्षों की मेहनत पर पानी फिरने में देर नहीं लगेगी।
जितेंद्र यादव, रायबरेली, उप्र।
मनोरंजन का जोखिम
आए दिन चीन में बने मांझे से हुई दुर्घटनाओं के समाचार सुनने में आते रहते हैं। यहां तक कि इस मांझे से मौत तक होती रहती हैं। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी इसकी चपेट में आते रहते हैं। लेकिन मौत के चलते-फिरते इस शस्त्र पर आज तक प्रतिबंध या नियंत्रण नहीं हो सका। जब भी कोई दुर्घटना होती है, शासन प्रशासन में थोड़ी हलचल होती है। फिर उसी ढर्रे पर मांझे की बिक्री लौट आती है।
प्रशासन दिखावे के लिए छोटे-मोटे दुकानदारों पर छापेमारी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। लेकिन पुलिस के लंबे हाथ बड़ी मछलियों तक या तो पहुंच नहीं पाते या फिर वह पहुंचाना नहीं चाहती। अपराध का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जिसके स्रोत का पुलिस को पता नहीं होता। लेकिन भ्रष्टाचार के कारण सब आंखें मूंदे रहते हैं। इसमें दोषी सरकार भी है। क्या सरकार गंभीर होकर एक अभियान के अंतर्गत चीनी मांझे के आपूर्तिकर्ताओं को सलाखों के पीछे नहीं कर सकती? उन पर धारा 307 और गैर इरादतन हत्या का अभियोग चलाकर कठोर दंड भी दिया जाना चाहिए।
नरेंद्र टोंक, मेरठ।
भूमि की भूख
जमीन हड़पने की बीमारी कोई नई बीमारी नहीं है जो हाल फिलहाल में पनपी हो। जमीन के लिए जंग हम आमतौर पर किसी एक घर के एक परिवार में होते हुए देखते हैं। एक पड़ोसी द्वारा दूसरे पड़ोसी के खेतों पर कब्जा, तो कभी एक देश के भीतर उसके राज्यों के बीच पानी या किसी अन्य मसले पर एक दुश्मनी जैसी स्थिति देखी जाती है, जिस कारण एक क्षेत्र कई टुकड़ों में राज्य के रूप में बंट जाते हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड नाम का नया राज्य बन जाना। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। हालांकि ये अलग इसलिए भी होते हैं, क्योंकि इन्हें अपनी अपनी संस्कृति और संसाधन का संरक्षण भी करना होता है।
अंतराराष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो रूस यूक्रेन को नहीं छोड़ना चाहता, चीन द्वारा भारत की भूमि पर नजर गड़ाए रखना एक अन्य जटिल उदाहरण है। इजराइल का विकसित देशों के साथ मिलकर फिलस्तीन की भूमि पर बलपूर्वक कब्जा। ऐसे मामलों से ऐसा लगता है मानो संसार में जंग का मुख्य करण जमीन ही है। लोगों को समझना चाहिए कि इस दुनिया में कोई स्थायी रूप से या अनंत काल तक हमेशा नहीं रहने वाला है।
हर किसी को एक न एक दिन दुनिया से विदा हो जाना है। यही नियति का नियम है। सभी यहां एक किरायेदार हैं। तो क्यों न जिंदगी प्रेम से गुजारी जाए! जब मृत्यु के समय शरीर के अनुपात के बराबर जमीन के हिस्से में दफन होना है या जलना है तो ज्यादा भूमि पाने की भूख क्यों है?
शाहिद हाशमी, जामिया नगर, नई दिल्ली।
सच को सलाम
सच बोलना, लिखना अब सबके वश की बात नहीं रही। जो भी सत्य बोलने का चेष्टा कर रहा है, उसके साथ लोग खड़े होकर अपना नुकसान नहीं करना चाहते हैं। तर्क कुतर्क से हार रहा है, सच झूठ से, विज्ञान पाखंड, अंधविश्वास से। जिन्हें सच बताने, दिखाने की जिम्मेवारी मिली हुई है, वे झूठ के साए में रहकर झूठ बता रहे हैं। झूठ अगर कोई कमजोर बोले तो उसकी तुरंत सजा निकल आती है, लेकिन झूठ बोलने वाला शक्तिशाली है तो फिर उसकी हां में हां मिलाने वाले का तांता लग जाता है।
ज्यादातर लोगों को न सच सुनना पसंद है, न सच बोलना, न सच जानना। पहले झूठ बोलने वाले आंखें झुकाकर बोलते थे, अब सरेआम बोलते हैं। झूठ की इतनी धाक हो गई है कि सच दुबक गया है। सच बोलना जीवन को खतरे में डालने जैसा होता जा रहा है। बड़े साहसी लोग ही सच बोल रहे हैं। आस्था, धर्म के नाम पर सच स्वीकार नहीं है तो कैसी आस्था और कैसा धर्म? हम विदेशों में कहते हैं कि हम युद्ध की नहीं, बुद्ध की धरती से आए हैं, लेकिन बुद्ध के विचारों को नहीं मानेंगे, तर्क और विज्ञान को नहीं मानेंगे, क्योंकि सच से पोल खुल जाती है, चेहरे का नकाब उतर जाता है। ऐसे दौर में जो जोखिम उठाकर सच बोल रहे हैं, उन्हें सलाम!
प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना।