अपनी बारी का इंतजार करते हैं। न केवल स्वस्थ जीवन की लालसा में, बल्कि बेहतर जीवन दर्शन की भी कामना करते नजर आते हैं। न्याय स्वास्थ्य के लिए हो या सुखद सामाजिक परिवेश में जीवनयापन के लिए, प्राकृतिक न्याय बरकरार रखने के लिए वैधानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए संविधान निर्माताओं ने बेहतर संविधान बनाया है।
अपनी संस्कृति सभ्यता के आधार पर दुनिया के तमाम देशों के उत्तम संवैधानिक प्रावधान को अंगीकार कर देश के एक-एक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता के साथ-साथ न्याय और गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार प्रदान किया। कालांतर में आवश्यकता के अनुरूप अब तक सवा सौ से ज्यादा बार संविधान में संशोधन कर इसे समयानुसार जनहित में उत्कृष्ट बनाने के हरसंभव प्रयास किए गए हैं। न्यायिक व्यवस्था की बात हो या चिकित्सा व्यवस्था की, हालांकि संवैधानिक आधार पर ही क्रियान्वित किए जा रहे हैं, लेकिन बेहतर व्यवस्था के लिए जब अब तक एक सौ सत्ताईस बार संविधान में संशोधन किए जा चुके हैं तो आगे भी होते ही रहेंगे।
विचारणीय प्रश्न यह है कि जनहित में देशभर में जनमत कराया जाए कि वर्तमान की चिकित्सा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था से लोग कितने खुश हैं। सामान्य लोग आखिर क्यों दूर से ही अस्पताल और कचहरी को प्रणाम करते हैं कि भगवान न करे हमें यहां कभी आना पड़े। जब बेहतर जीवन के लिए यह आवश्यक है तो फिर लोग यहां आने में क्यों नहीं सहज महसूस करते हैं? इसकी एकमात्र वजह है कि इन दोनों जगहों पर व्यावसायिकता हावी हो चुकी है। सरकार को इन दोनों जगहों पर व्यावसायिकता हावी न होने देकर जन सामान्य के लिए सकारात्मक बनाना चाहिए। ऐसी व्यवस्था देशहित में आवश्यक है।
आम लोगों को भी इस संबंध में जागरूक और क्रियाशील होने की आवश्यकता है। आज इस तरह की व्यवस्था करने की महती आवश्यकता दिखती है कि अस्पताल तो रहे, लेकिन वहां धंधे जैसी कोई बात नहीं हो। लोगों को सब तरह की इलाज की सुविधा मिले। सामान्य लोग अपने ऊपर हुए अन्याय के बाद न्यायालय का दरवाजा खटखटाए, न्यायालय में जाए तो उन्हें न्याय मिले। न्याय के मंदिर में अन्यायी नहीं पहुंचे, शोषक नहीं, शोषित पहुंचे- इस तरह की व्यवस्था करने की जरूरत है। वकील रहे, लेकिन वह झूठे मुकदमे की पैरवी न करे। इस पर आज बुद्धिजीवी वर्ग को सोचने की जरूरत है।
अन्यथा बेहतर सुविधा, बेहतर चिकित्सा सुविधा के लिए सुविधा संपन्न लोग देश छोड़कर जाते रहेंगे। ये बातें कहावतों में ही सिमट कर रह जाएगी कि यही वह पवित्र भूमि है जहां देवता भी जन्म लेने के लिए तरसते थे। देशवासियों को जागने की जरूरत है। अच्छे लोगों को देशहित में अपनी भूमि के हित में आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित वातावरण मुहैया नहीं करा सके तो भविष्य में जो शासक होंगे, उस पर भी आने वाली पीढ़ी जरूर प्रश्नचिह्न लगाएगी। चिकित्सा, न्यायिक व्यवस्था के सवाल पर चिंतन मंथन और बेहतर क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
मिथिलेश कुमार, भागलपुर, बिहार।
बजट से उम्मीद
केंद्र सरकार ने अपनी दूसरी पारी के अंतिम बजट में लगभग सभी वर्गों को लुभाने की कोशिश की। कुछ लोग इसे चुनावी बजट भी कहेंगे, क्योंकि अगले साल आम चुनाव हैं। इस बजट से सबसे ज्यादा खुशी उन लोगों को हो सकती हैं जिनकी आय पांच लाख से ऊपर और लगभग सात लाख के करीब है, क्योंकि सरकार ने इस बार के आम बजट में सात लाख तक कोई टैक्स नहीं देने का प्रावधान कर दिया, जो पहले पांच लाख थी।
दूसरा यह कि सरकार ने महिलाओं के लिए नई बचत योजना की घोषणा की, जिसमें लगभग दो लाख की बचत पर 7.5 फीसद ब्याज देने का प्रावधान कर महिलाओं को बचत की ओर आकर्षित करने के लिए अच्छा फैसला लिया। तीसरा, वरिष्ठ नागरिक खाता योजना की सीमा अब 4.5 लाख से बढ़ाकर नौ लाख करके बुजुर्गों को राहत प्रदान की। इसी तरह युवाओं, शिक्षा क्षेत्र, कृषि, हर सिर को छत उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना का और विस्तार करने के लिए भी बजट में कुछ न कुछ खास है।
रेलवे बजट में बहुत ज्यादा इजाफा कर रेलवे में सुधार करने के लिए भी विशेष प्रावधान इस बार के बजट में है। बजट में कुछ चीजें सस्ती हुई हैं तो कुछ महंगी। इस बार का बजट हर किसी के अच्छे दिन लाएगा या फिर वही ढाक के तीन पात, यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन इस बार के आमजन के प्रयोग होने वाली जरूरी वस्तुओं का जिक्र कम ही हुआ। मसलन, रसोई गैस, अन्न, दालों के भाव कम करने के लिए भी इस बजट में कुछ खास नहीं है। निजी क्षेत्र में रोजगार करने वाले लोगों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए कुछ योजनाओं को अमल में लाना चाहिए था।
राजेश कुमार चौहान, जलंधर, पंजाब।
समानता के कानून
समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि परिवार के मामले में सभी धर्मों के लोगों पर एक समान कानून लागू होना। शादी-ब्याह, संपत्ति, गुजारा भत्ता, तलाक, उत्तराधिकारी सिविल (दीवानी) मामले दोनों धर्मों के अलग अलग धर्मग्रंथ में बताए गए हैं, जिसे लोग प्राचीन काल से ही मानते आ रहे हैं। औपनिवेशिक काल में सिविल कानून को अलग-अलग प्रकार से ही हिंदू और मुसलिम के बीच लागू किया गया था जो शायद ‘फूट डालो राज करो’ की नीति का आधार था।
लेकिन इंसान अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए न धर्म को महत्त्व देता है और न ही कानून को, जैसा कि सरला मुद्गल केस 1995 में हुआ था। यह मामला धर्मांतरण का था। इससे पहले एक मामला शाहबानो का 1986 में सामने आया था। इसी तरह के और भी उदाहरण नरसू अप्पा माली केस 1953 आया था। वह द्विविवाह करने का मामला था। यह पहला मामला था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अनुमति नहीं मिली। वर्तमान समय की सत्ताधारी पार्टी जब-जब सत्ता में आती है तो इसमें सुधार की बात करती है। इस कानून में सुधार अवश्य होना चाहिए, लेकिन वैसे कानून में जहां भेदभाव होता है।
शाहिद हाशमी, जामिया नगर, नई दिल्ली।