चौपाल: बाजार बनाम त्योहार
त्योहार शब्द सुनते ही हमारे मस्तिष्क में एक ऐसे दिन की छवि उभर कर आती है जो अन्य दिनों की तुलना में अलग होती है। यानी यह दिन मेल-मिलाप हर्ष उल्लास से भरा दिन होता है।

लेकिन सोचिए जब यही त्योहार किसी के मातम का कारण बन जाए तो यह अपने आप में दुखद है और चिंताजनक भी। दरअसल, हमने हाल ही में मकर सक्रांति का त्योहार मनाया। यह त्योहार अपने घरेलू खानपान और किसी बहती पवित्र धारा में स्नान के लिए जाना जाता है। लेकिन अब ऐसा शायद नहीं है। मकर सक्रांति अब पतंगबाजी के लिए भी जाना जाता है और यही कारण है कि इस दिन लोग पतंगबाजी में श्रेष्ठता की होड़ में अपने या अन्य के जीवन के लिए घातक सिद्ध होते हैं।
हम इसे एक तात्कालिक घटना मान ले सकते हैं कि मकर सक्रांति के दिन ही उज्जैन में एक युवक का मांझे वाले धागे से गला कट गया। इसके अलावा, हम ऐसी भी घटनाएं सुनते होंगे कि पतंग काटने के चक्कर में कोई छत से गिर गया या किसी में मुठभेड़ हो गई। मकर सक्रांति में पतंगबाजी की घुसपैठ बाजार की देन है। यह एक कड़वा सत्य है कि बाजार ने हमारे त्योहारों की मूल प्रकृति में व्यापक बदलाव ला दिया। बाजारवाद केवल इसी त्योहार पर हावी नहीं है, बल्कि इसने अन्य त्योहारों पर भी अपनी पैठ जमाई है।
मसलन, होली में हम प्राचीन काल में पुष्पों से रंग बनाया करते थे या प्राकृतिक स्रोतों से, जो किसी भी रूप से न तो प्रकृति के लिए और न ही मानव समाज के लिए हानिकारक थे। वहीं लठमार होली समाज में बंधुत्व स्थापित करती थी, लेकिन बाजारवाद के चलते यह त्योहार भी काफी प्रभावित हुआ है, क्योंकि आज बेहद खतरनाक रासायनिक तत्त्वों से मिलावट भरे रंगों का गोरखधंधा चलता है। इसी होली के दिन समाज का बड़ा तबका नशे में चूर रहता है जो किसी जीवन को नकारात्मक रूप से ध्वस्त करता है। वहीं दीपावली जैसे त्योहार पर विस्फोटक पदार्थों का बाजार भी चमक उठता है जो वायु को तो प्रदूषित करता ही है, अपनी जद में किसी के जीवन को शून्य भी कर दे सकता है।
इसलिए हमारे समाज को अब नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है कि संस्कृति का विकास करना बाजार के बस की बात नहीं, बल्कि यह एक सभ्य समाज के सहयोग द्वारा ही विकसित हो सकती है। अगर हम अपने त्योहारों को उसके मूल उद्देश्य के साथ मनाएं तो हम इससे केवल संस्कृतिक विकास ही नहीं, आर्थिक विकास भी कर सकते हैं।
इसके लिए हमें फिजूलखर्ची से बचना चाहिए, विदेश से आयात की हुई वस्तु के बजाय देश में निर्मित वस्तुओं को तरजीह देना चाहिए, ताकि घरेलू उद्योगों का विकास हो सके। यों भी हमारे त्योहारों का मूल स्वभाव ऐसा है कि इससे समाज में समन्वय, सहयोग, बंधुता सामंजस्य आदि की भावना कायम होती है जो सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है।
’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र
सहयोग की संस्कृति
भारत में पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है जो भारतीय समाज की विविधता के लिए घातक है। हमारे समाज की सबसे बड़ी खूबसूरती उसका बहु-सांस्कृतिक स्वरूप है। समाज का कोई वर्ग इस मूल्य पर चोट पहुंचाता है तो वह समाज का दुश्मन है, चाहे वह किसी भी पंथ, समुदाय का हो। भारत में किसी भी संस्कृति और परंपरा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय समाज कई धर्मों, दर्शन, भाषाओं, पंथ, संस्कृतियों को समेटे हुए हैं।
लेकिन समस्या यह है कि भारतीय समाज का लगभग हर समुदाय अपनी संस्कृतियों, परंपराओं की सर्वोच्चता के लिए संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रख कर खुद को दूसरे से सर्वोच्च समझने लगता है। इससे नैतिक मूल्यों के साथ-साथ संवैधानिक मूल्यों का पतन होता है, लेकिन सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थों के चक्कर में तटस्थ नहीं रह पाती हैं। यही कारण है कि भारत में आजादी से लेकर आज तक सामाजिक एकता नहीं बन पाई है और प्रस्तावना के बंधुत्व, पंथनिरपेक्षता जैसे मूल्यों से कोसों दूर चले जा रहे हैं।
’पीयूष रंजन यादव, प्रयागराज, उप्र