चौपालः वोट का सच
सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते! पांच साल तक राममंदिर, समान नागरिक संहिता, धारा 370 जैसे अपने मूल मुद्दों को छोड़ कर तीन तलाक, विदेश से कालाधन लाना, नोटबंदी, दो करोड़ सालाना रोजगार वगैरह आजमाते रहे।

सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते! पांच साल तक राममंदिर, समान नागरिक संहिता, धारा 370 जैसे अपने मूल मुद्दों को छोड़ कर तीन तलाक, विदेश से कालाधन लाना, नोटबंदी, दो करोड़ सालाना रोजगार वगैरह आजमाते रहे। चुनाव आते-आते नौबत यह आ गई कि पाकिस्तान के नाम पर वोट मांगने पर मजबूर होना पड़ा। फिर भी आश्वस्त नहीं हो सके तो हिंदू-मुसलमान करना ही पड़ गया। भाजपा को एक तिहाई वोट जिन मुद्दों पर मिले थे, उनकी अनदेखी करने लगी और जहां से कुछ हासिल नहीं होना है, वहां हाथ-पैर मार रही थी! बावजूद इसके ज्यादा देर नहीं हुई, जनता का मूड चुनाव आते-आते बखूबी भांप लिया और चुनाव से ऐन पहले असल मुद्दों पर वापसी करते हुए मजबूती से माहौल बनाया। अब पार्टी सही दिशा में आगे बढ़ रही है! गांव-गांव तक संदेश पहुंच चुका है कि मुसलमानों की हवा टाइट है। साक्षी चूक रहे थे, योगी अकेले पड़ रहे थे तो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भी मोर्चे पर सबका साथ-सबका विकास भूल कर हिंदुत्व का परचम बुलंद करने के लिए उतार दिया गया है!
पांच साल बाद संकल्प पत्र में 370, 35 ए सब फिर से याद आए और अबकी बार फिर असल मुद्दों पर सरकार का संकल्प दोहराया गया। हर पार्टी की अपनी एक छवि है देश में, जैसे कांग्रेस की छवि मुसलिम तुष्टिकरण की है, वैसे ही भाजपा की हिंदूवादी की है। छवि यानी इमेज का दायरा तोड़ना आसान नहीं होता। अमिताभ जैसे महानायक को भी ‘एंग्री यंगमैन’ की छवि बनाने और फिर तोड़ने में लंबा अरसा लगा था, सलमान को भी ‘मैचोमैन’ की छवि तोड़ कर ट्यूबलाइट में आना महंगा पड़ गया था। वैसे ही भाजपा को अपनी हिंदूवादी छवि से बाहर निकल कर अखिल भारतीय सर्वधर्म समभाव पार्टी की छवि बनाने की कोशिश भारी पड़ सकती थी। इसमें शक नहीं कि मौजूदा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता किसी भी दूसरे नेता से कई गुना ज्यादा है, लेकिन मुसलमानों में उनकी स्वीकार्यता नहीं है, यह भी जमीनी सच्चाई है। कोशिशें उन्होंने बहुत कीं, लेकिन दशकों से पार्टी की जो छवि बनी, उसे एकदम से बदल पाना मोदी हैं तो भी मुमकिन नहीं!
अमित शाह संगठन चलाते हैं, जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच रहते हैं, उन्हें सब पता है। यों ही नहीं उन्होंने मुसलमानों को छोड़ कर बाकी सबको एनआरसी से बचाने का बयान दिया।
योगी ध्रुवीकरण की राजनीति का जमीनी महत्त्व समझते हैं। यों ही नहीं उन्होंने हमारे लिए बजरंग बली काफी हैं, का बयान दिया था। मेनका दशकों से राजनीति में हैं, यों ही नहीं उन्होंने मुसलमानों के बिना भी जीत का बयान दिया। कोई कितना भी गंगा-जमुनी तहजीब, हिंदू-मुसलिम-सिख-ईसाई भाई-भाई की बात कर ले, कड़वी लेकिन सच्ची बात है कि एक-दूसरे के प्रति नफरत हमारी स्वाभाविक पहचान है। इस नफरत पर भाईचारे का मुखौटा वसुधैव कुटुंबकम की किताबी परंपरा है, जिसे सुनकर हम तालियां पीटते हैं और फिर किसी आजम-ओवैसी के भाषण में मुसलमानों और किसी योगी-प्रज्ञा के भाषण में हिंदुओं को वोट देने की अपील पर भी ताली पीट आते हैं।
जो सच है, वही सच है, जिससे वोट मिलना है, वही सही है, वही सच है! इस सच के साथ जो रहेगा, वही वोट पाएगा, जो भटकेगा वह सिर्फ वोट का दावा करता रह जाएगा! यह सबक है उनके लिए भी जो चुनाव जीतने के बाद ‘कोर वोटर्स’ के मन की बात नहीं करते और उनके लिए भी जो चुनाव के वक्त ही बहुसंख्यकों की मन की बात समझने का सबूत देने के लिए मंदिर-मंदिर घूमने लगते हैं!
’मो. ताबिश, जामिया मिल्लिया, नई दिल्ली
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