संपादकीय ‘पितृसत्ता की जंजीरें’ (18 जुलाई) पढ़ा। यह बहुत अफसोसनाक है कि आज भी हमारे समाज में इतनी संकीर्ण विचारधारा के लोग रहते हैं! इक्कीसवीं सदी के भारत में इससे ज्यादा दुखद क्या होगा कि अविवाहित लड़कियों को मोबाइल तक न छूने दिया जाए, फिर अंतरजातीय विवाह करना तो बहुत दूर की बात है। दरअसल, बीती चौदह जुलाई को गुजरात के बनासकांठा जिले के बारह गांवों के ठाकोर समुदाय के लोगों ने संकीर्ण मानसिकता के चलते अपने समुदाय के लिए कुछ बेहद दकियानूसी नियम बना दिए कि इस समुदाय के लोग अंतरजातीय विवाह नहीं कर सकेंगे, अविवाहित लड़कियों के लिए मोबाइल फोन का प्रयोग वर्जित रहेगा और यदि ऐसा पाया गया तो उसके जिम्मेदार माता-पिता होंगे जिसके लिए उन्हें डेढ़ से दो लाख रुपए जुर्माने के रूप में भुगतने पड़ेंगे।
हमारा संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता और समानता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है जबकि इस तथाकथित समुदाय के ये विकृत नियम इन दोनों मूल अधिकारों का सरासर उल्लंघन करते हैं। सवाल है कि इन पंचों की पंचायतें ही नियम कानून बनाने लगीं तो देश में संविधान और संसद का महत्त्व ही क्या रह जाएगा! लड़कियों को मोबाइल फोन न देना दर्शाता है कि हमारे देश में लैंगिक पूर्वाग्रह की जड़ें कितनी गहरी हैं। साथ ही, अंतरजातीय विवाह को अपराध मानना बताता है कि लोगों के दिमाग में जाति की जड़ता किस कदर समाई हुई है।
हैरानी होती है कि ऐसे बेहूदा नियम बनाने वालों को संविधान की तनिक भी परवाह नहीं होती है! क्या इनकी पंचायत संविधान, संसद, न्यायालय से भी बड़ी हो सकती है? सवाल है कि लैंगिक पूर्वाग्रह और जाति की जड़ता जैसी संकीर्णताएं भारत से कभी समाप्त होंगी भी या नहीं? निस्संदेह जब तक ये जाति पंचायतें नियम बनाती रहेंगी तब तक तो नहीं। लोगों को समझना होगा कि तकनीक और सूचना क्रांति के इस जमाने में शिक्षा और सुरक्षा दोनों के लिहाज से मोबाइल फोन निहायत जरूरी हो गया है। लड़कियों और महिलाओं के लिए तो और अधिक। साथ ही, देश की प्रगति के लिए समानता पर आधारित सामाजिक अवधारणा को सफल बनाने के लिए लोगों को अपने दिमाग से जाति की जड़ता को दूर करना ही होगा।
’अंकित रजक, दतिया, मध्यप्रदेश

