चौपाल: लोकतंत्र की सार्थकता
जब समाज और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने की प्रतिबद्धता के साथ राजनीति में विभिन्न चेहरे सक्रिय होंगे, तब आम नागरिकों को विकल्प भी मिलते ही चले जाएंगे। वर्तमान दौर में राजनीति में सक्रिय शख्सियत का पेशेवर अंदाज नागरिकों को कहीं कांटे की तरह चुभता है। लेकिन सशक्त विकल्प के अभाव में आम नागरिकों का मताधिकार रूपी अंतिम अस्त्र भी कुल मिला कर निरर्थक सिद्ध हो जाता है।

सिर्फ मताधिकार का प्रयोग कर लेने के बाद राजनीतिक गतिविधियों के प्रति अनदेखी आखिरकार नागरिकों के लिए भारी सिद्ध होती है। इस स्थिति को बदले जाने की जरूरत है। अफसोस की बात है कि नागरिकों का एक बड़ा वर्ग राजनीति में यथास्थितिवाद को प्रश्रय भी देता रहा है। परोक्ष रूप से विलंबित न्याय रूपी अन्याय ने भी राजनीतिक विकृतियों को बढ़ावा दिया है। इन संदर्भों में जरूरत इस बात की है कि राजनीति के सकारात्मक पक्ष को पुनर्स्थापित करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाया जाए।
दरअसल, राजनीति में जब तक शुचिता और पवित्रता का वातावरण निर्मित नहीं कर दिया जाता, तब तक राजनीतिक विशुद्धि दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं है। जरूरत इस बात की है कि राजनीति में सेवा और समर्पण के मनोभावों के साथ समाजसेवा के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्तित्व राजनीति को सही दिशा देने के लिए आगे आए।
जब समाज और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने की प्रतिबद्धता के साथ राजनीति में विभिन्न चेहरे सक्रिय होंगे, तब आम नागरिकों को विकल्प भी मिलते ही चले जाएंगे। वर्तमान दौर में राजनीति में सक्रिय शख्सियत का पेशेवर अंदाज नागरिकों को कहीं कांटे की तरह चुभता है। लेकिन सशक्त विकल्प के अभाव में आम नागरिकों का मताधिकार रूपी अंतिम अस्त्र भी कुल मिला कर निरर्थक सिद्ध हो जाता है।
समय-समय पर लोकतंत्र में सत्ता का उलट फेर विभिन्न चेहरों को बारी-बारी से पलटता रहा है, लेकिन कहीं भी कारगर रूप से चरित्र का चयन संभव न हो सका। वर्तमान संदर्भों में जरूरत इस बात की है कि तमाम राजनीतिकों को ऐसा पाठ पढ़ाया जाए, जिससे उनका समूचा जीवन दर्शन सकारात्मक बन जाए। वैसे भी लोकतंत्र की राजनीति में नकारात्मकता का कतई कोई स्थान नहीं होता, सकारात्मक राजनीति को ही प्रश्रय दिया जाना चाहिए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते वैचारिक असहमतियों का स्वागत करते हुए किसी भी विवादित मुद्दे पर सर्वसम्मत निराकरण पर जोर रहना चाहिए। व्यक्तिगत असंतुष्टि को एकबारगी नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन सकल समाज या राष्ट्र के एक बड़े धड़े की असंतुष्टि का त्वरित निराकरण, राजनीतिक प्राथमिकताओं में शुमार किया जाना चाहिए।
यह माना जा सकता है कि संपूर्ण को संतुष्ट रखना दुष्कर है, लेकिन बहुमत के अनुरूप आचरण और व्यवहार से अपूर्ण को भी पूर्ण किए जा सकने की राजनीतिक क्षमता का परिचय दिया जाना चाहिए। दरअसल, राजनीति भी किसी तप आराधना से कम नहीं होती, क्योंकि सिद्धत्व को प्राप्त होना आध्यात्मिक तथा राजनीतिक लक्ष्य की दृष्टि से समान समझा जा सकता है।
दोनों ही का अपना शाश्वत महत्त्व है। एक और अलौकिक दृष्टि है तो दूसरी ओर लौकिक दृष्टि है। लेकिन आखिर जनकल्याण का परम लक्ष्य ही सर्वोपरि है।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास, मप्र
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