‘विश्वसनीयता के लिए’ (संपादकीय, 24 नवंबर) पढ़ा। सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर जो प्रश्न उठाए हैं, वे सरकार की नजर में भले ही असहज दिखें, लेकिन सत्तर वर्षों से सुषुप्त सवाल आज समय की मुखर पुकार बन गई है। संपादकीय में गंभीरता से जो विश्लेषण और सुझाव अंकित किया गया है, वह निष्पक्षता और निडरता के घनत्व में वृद्धि का संदेश प्रदान करता है।
दरअसल, संविधान ने चुनाव आयुक्तों सहित अन्य कई संवैधानिक संस्थाओं में नियुक्ति प्रावधान को विस्तृत ढंग से इसलिए वर्णित नहीं किया, क्योंकि संविधान निर्माताओं के मानस पटल पर संस्थाओं में नियुक्ति के वे प्रतिकूल भाव नहीं उभरे थे, जो आज दिन-प्रतिदिन परिलक्षित हो रहे हैं। काफी जद्दोजहद के बाद सीबीआइ और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जा सकी थी। संविधान पीठ की चिंता एवं टिप्पणी सरकार के लिए सुधार की गंभीर चेतावनी भी है, ताकि मुदित नौकरशाहों से मुक्त होकर निर्वाचन आयोग जैसी स्वायत और संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता एवं निष्पक्षता बनी रहे।
राज्यों में भी लोक सेवा आयोग एवं निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति सीधे सरकार अपनी मर्जी से वैसे पदाधिकारियों की करती है जो सरकार के अनुकूल बर्ताव के पाबंद हुआ करते हैं। इसलिए आवश्यक है कि राज्य सहित केंद्र की सभी संवैधानिक संस्थाओं में नियुक्ति की एक अलग संतुलित इकाई गठित हो। प्रसंगित मामले की गहराई तल को स्पर्श करने से एक अति महत्त्वपूर्ण विषय भी राष्ट्रीय विमर्श में रखने की जरूरत है कि जिस मंच से निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का संदेश दिया जा रहा है, क्या यह जरूरी नहीं है कि न्यायिक कालेजियम में वर्षों से जजों की नियुक्ति संबंधी लंबित सुधार के सूत्र को भी जल्द अपनाया जाए, ताकि देश के समक्ष एक नजीर पेश हो सके?
जब अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश में जजों की नियुक्ति सरकार करती है और दुनिया के अधिकांश देशों में कालेजियम नहीं है तो 2015 में सरकार द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक आयोग कानून को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर देने से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति वर्तमान व्यवस्था से करना कितना पारदर्शी है, यह गंभीर सवाल है।
संविधान निर्माताओं ने यह अपेक्षा की थी कि समस्त संवैधानिक संस्थाएं या स्तंभ एक दूसरे के मूलभूत अस्तित्व पर बिना प्रहार किए सुधारात्मक विधि अपनाई जाए। सुप्रीम कोर्ट को संविधान के रक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त है, लेकिन लोकतंत्र के चौकीदार के रूप में चिह्नित सरकार की भी अपनी संवैधानिक भूमिका और जिम्मेदारी है, जिससे टकराव और मतभेद से भी न्यायपालिका को परहेज करने की जरूरत दिख रही है।
अशोक कुमार, पटना बिहार