फैसले का मूल्य
बहुत से लोगों का यह विचार होता है कि किसी फैसले का मूल्य उसके नतीजे पर निर्भर करता है। अगर नतीजा अच्छा तो फैसला भी निर्दोष। लेकिन मेरा खयाल है कि फैसले का मूल्य उसके पीछे छिपी मंशा से तय होना चाहिए। मंशा या ध्येय अच्छा हो और नतीजा न भी अच्छा निकले तो भी […]
बहुत से लोगों का यह विचार होता है कि किसी फैसले का मूल्य उसके नतीजे पर निर्भर करता है। अगर नतीजा अच्छा तो फैसला भी निर्दोष। लेकिन मेरा खयाल है कि फैसले का मूल्य उसके पीछे छिपी मंशा से तय होना चाहिए। मंशा या ध्येय अच्छा हो और नतीजा न भी अच्छा निकले तो भी निर्णय की पवित्रता पर आंच नहीं आती है। इसी पृष्ठभूमि में बात किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने पर की जाए (हालांकि एक वक्त उन्होंने केजरीवालजी के राजनीति में प्रवेश का घोर विरोध किया था और अण्णाजी के साथ राजनीति से दूरी बनाए का भी फैसला किया था, उनके इस फैसले पर चर्चा फिर कभी)। सवाल वही है कि उनका भाजपा में शामिल होने का फैसला सही है या गलत (धार्मिक आस्था की तरह इसे बेहद निजी फैसला मानकर हम आगे नहीं बढ़ सकते)। अब इसकी जांच करने के लिए हमें नतीजों का इंतजार करने के बजाय फैसले के पीछे छुपी मंशा की खोजबीन करनी चाहिए। अर्थात वे किस मंशा से भाजपा में आर्इं? कई विकल्प हो सकते हैं जिन्हें क्रम से देखेंगे:-
पहला विकल्प यह है कि वे भाजपा के हिंदुत्ववाद से बहुत प्रभावित हैं जो धारा 370, समान नागरिक संहिता, राम मंदिर, गोडसे की पूजा, प्रति हिंदू महिला कम से कम चार पैदा करने, घर वापसी, कथित लव जिहाद के विरुद्ध जिहाद आदि मुद्दों से ओतप्रोत है। जाहिर है, जो लोग किरणजी के पिछले रिकॉर्ड को जानते हैं वे इससे कतई सहमत नहीं होंगे (प्रशासन और समाज के लिए उनके योगदान को हमारा सलाम)।
दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि आंदोलन के समय उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों का मोदी सरकार ने समाधान कर दिया हो, मसलन- जन लोकपाल, सीबीआइ की स्वायत्तता, राजनीतिक दलों के चंदे और अन्य आय स्रोतों को सूचनाधिकार के दायरे में लाया जाए, नेताओं के लिए न्यूनतम शैक्षिक अर्हता तय हो आदि। फिलहाल हम कह सकते हैं कि इन मुद्दों पर भाजपा का रुख साफ है, कि ये उसके कार्यक्रम में शामिल नहीं हैं।
जाहिर है कि किरणजी भाजपा के हिंदुत्ववादी हल्लाबोल से बिलकुल सहमत नहीं होंगी। दूसरी तरफ भाजपा उनके राजनीति और समाज को लेकर रेडिकल सुधारवादी सोच से सहमत नहीं हो सकती (इससे तो नेताओं कि नेतागीरी का सारा आकर्षण ही जाता रहेगा)।
तब प्रश्न वही कि किरणजी के फैसले के पीछे मंशा क्या है। साफ है कि अरविंद केजरीवाल से निजी अहं का टकराव ही उनके फैसले के मूल में है। यह फैसला उनके निजी वर्चस्ववादी चरित्र को दर्शाता है। निजी घृणा या द्वेष किसी व्यक्ति में जब इतना घनीभूत हो जाए कि वह अपने स्वाभाविक पथ से ही भटक जाए तो ऐसा व्यक्ति सत्ता पाकर कितना लोकतांत्रिक रह पाएगा, आप खुद ही सोच लीजिए। गलत और गैर लोकतांत्रिक मंशा से कोई व्यक्ति सत्ता में आ भी जाए तो न समाज का भला हो सकता है और न लोकतंत्र का।
राहुल मिश्रा, चिरगांवो, झांसी
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