अपने पराए
मनुष्य की अनोखी प्रवृत्ति होती है। वह अपनी लाचारी, कमजोरी और बेबसी को किसी के सामने उजागर नहीं होने देता। वह तब और ज्यादा संजीदा हो जाता है, जब उसकी कमजोरी उसके अपने, उसके अपने..
मनुष्य की अनोखी प्रवृत्ति होती है। वह अपनी लाचारी, कमजोरी और बेबसी को किसी के सामने उजागर नहीं होने देता। वह तब और ज्यादा संजीदा हो जाता है, जब उसकी कमजोरी उसके अपने, उसके अपने बच्चे हों। शहरीकरण, औद्योगीकरण और पश्चिमी संस्कृति का नतीजा है कि समाज में आज संयुक्त परिवार और मूल परिवार की अवधारणा लोगों के बीच विकसित हो रही है। पैसे का प्रभाव लोगों पर इस कदर पड़ रहा कि उसकी चमक और खनखनाहट के आगे लोग अपने अस्तित्व के उस मूल को भूल रहे हैं, जिसके द्रव्य संयोग से उसकी उत्पत्ति हुई है।
नगरों में बढ़ रहे वृद्धाश्रम इस बात की गवाही दे रहे हैं कि संतानों के मन में वह स्थान, जहां मां-बाप के लिए स्नेह, प्यार और इज्जत का बसेरा हुआ करता था, वहां सिक्कों के खनक गूंज रही है। आखिर व्यक्ति अपनी किस आर्थिक अपंगता का हवाला देकर मां-बाप से घर के एक कोने का हक भी छीन लेता है और समाज की उस अभिशप्त प्रथा की एक छोटी-सी कोशिका बना देता है, जिसका जीवन अब लोगों की हमदर्दी और सरकारी मदद के भरोसे चलती है।
ये वृद्धाश्रम लोगों के मन से माता-पिता के लिए खत्म हो रही संवेदना का सूचक है। यह लोगों के नैतिक मूल्यों में हो रही भारी गिरावट की ओर संकेत करता है। यह एक गंभीर मसला है कि माता-पिता, जो अपना पेट काट कर बच्चों की परवरिश करते हैं, ताकि उनको कभी कोई कमी न हो, इस उम्मीद में कि वे बुढ़ापे में उनकी लाठी बनेंगे। पर दुख होता है देख कर जब वे अपने ही बच्चों द्वारा ठगे जाते हैं। ऐसे समय में नैतिक मूल्यों को जिंदा रखना एक बड़ी चुनौती है।
शुभम श्रीवास्तव, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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