चौपाल: बजट से उम्मीदें
बेरोजगारों को उम्मीद है कि सरकार रोजगार के लिए नए विकल्प लाएगी। इस तरह हर क्षेत्र को अलग-अलग उम्मीदें हैं। देखते हैं, सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरती है या नहीं।

पांच जुलाई को आम बजट पेश होने वाला है जिससे हर क्षेत्र को बहुत उम्मीदें हैं। देश में मंदी के काले बादल छाए हुए हैं जिनसे व्यापारी बहुत परेशान हैं। उन्हें उम्मीद है कि सरकार जीएसटी को सरल करेगी और इसकी दरों में भी बदलाव करेगी क्योंकि अभी ज्यादातर चीजें 12 और 18 दरों में आती है। तेल कंपनियां भी चाहती हैं कि पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। इससे लोगों के साथ-साथ उन्हें भी फायदा होगा। कृषि क्षेत्र को भी बहुत-सी उम्मीदें हैं।
कृषि विशेषज्ञ और कृषि संगठन चाहते हैं कि सरकार खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा दे और कृषि निर्यात को प्रोत्साहित करने के नए उपाए करे। देश के रियल एस्टेट क्षेत्र पर इस बार बजट में खास नजरे इनायत हो सकती है क्योंकि सरकार ने 2022 तक हर परिवार को मकान उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। बेरोजगारों को उम्मीद है कि सरकार रोजगार के लिए नए विकल्प लाएगी। इस तरह हर क्षेत्र को अलग-अलग उम्मीदें हैं। देखते हैं, सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरती है या नहीं।
’राघव जैन, जालंधर
किसके लिए योजना
आयुष्मान भारत योजना से उम्मीद जगी थी कि अब देश के गरीबों-वंचितों को इलाज के लिए पैसों के बारे में नहीं सोचना पड़ेगा। लेकिन इस उम्मीद पर जल्दी ही पानी फिर गया है। जिस तरह बिहार में समुचित इलाज के अभाव में तकरीबन 180 बच्चे काल के गाल में समा गए, उससे आयुष्मान भारत योजना पर कई सवाल खड़े हो गए हैं। अब गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि गरीबों के लिए बनाई गई योजनाएं वास्तव में जमीन पर उतर भी पाएं। बड़ी बीमारी के नाम पर बड़े-बड़े वादे और बड़ी राशि की योजनाएं सिर्फ कागज पर दिखीं।
अगर हम नौनिहालों को भी बचाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं तो फिर ये योजनाएं भला किस काम की हैं? यह नाकाम व्यवस्था हमारी चिकित्सा, हमारी स्वास्थ्य नीति आदि सबकी पोल खोल कर रख देती है। इसलिए बड़े-बड़े वादे छोड़ कर केंद्र व राज्य सरकार ऐसी कोई व्यवस्था करे कि देश का कोई भी नागरिक इलाज के अभाव में दम तोड़ने पर मजबूर न हो।
’दिनेश चौधरी, सुरजापुर, सुपौल, बिहार
संवेदना के विरुद्ध
संवेदनशील लोगों को मारने के क्या-क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं यह किसी ने सोचा नहीं होगा। बलात्कार और हत्या यहां रोज की खबरें हैं। इसके अलावा दलितों का अनाज न मिलने से मरना/ मारा जाना, भीड़ द्वारा मार दिया जाना, किडनैप, छुआछूत आदि के चलते हाथ काट देना इस देश की प्रमुख खबरें हैं। ताज्जुब तो इस बात का होता है कि बिना किसी खास वजह के एक दलित पत्रकार को पुलिस पकड़ कर ले जाती है और उच्चतम न्यायालय के कहने पर छोड़ देती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 19 (क) का प्रयोग करने वालों को इस प्रायोजित गिरफ्तारी के जरिए संदेश यह जाता है कि आप सत्तारूढ़ नेताओं-मंत्रियों के खिलाफ कुछ भी लिखोगे तो बिना वारंट गिरफ्तार कर लिए जाओगे!
प्रगतिशील अभिनेता-निर्देशक गिरीश कर्नाड (अब दिवंगत) को जूतों की माला पहनाया जाना और उनके मुंह पर जूता लगाना यह सिद्ध नहीं करता कि ऐसी हरकतें करने वाले कितने गिरे हुए लोग हैं, बल्कि यह बताता है कि देश के अति संवेदनशील लोगों में ऐसी हरकतें सहने की कितनी ताकत बची है! अर्थात एक तरफ आपके जमीर को मारा जा रहा है तो दूसरी तरफ यह परखा जा रहा है कि जमीर जिंदा कितना बचा है। हकीम मंजूर लिखते हैं- ‘शहर के आईन में ये मद भी लिक्खी जाएगी/ जिंदा रहना है तो कातिल की सिफारिश चाहिए।’
’एसएस पंवार, फतेहाबाद, हरियाणा
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