हम जिस थाली में खाएं उसी में छेद करना शुरू कर दें तो यह हमारी सबसे बड़ी नासमझी नहीं होगी तो ओर क्या होगा? पृथ्वी हमें निस्वार्थ भाव से जीने के लिए सब कुछ देती है, लेकिन हम नासमझी बरतते हुए इसे ही नुकसान पहुंचाते हैं और अपने स्वार्थ के लिए आंखें बंद किए रहते हैं। क्या यह हमारी नासमझी नहीं है? महात्मा गांधी ने पर्यावरण और सतत विकास पर कहा था कि आधुनिक शहरी औद्योगिक सभ्यता में ही उसके विनाश के बीज निहित है। इंसान ने अपने हाथों ही प्रकृति की नाक में दम करके अपने और अन्य प्राणी जाति का विनाश का सामान तैयार कर लिया है।
कहने को पृथ्वी की सुरक्षा के लिए पृथ्वी दिवस संपूर्ण विश्व में मनाया जाता है, लेकिन आज जिस तरह पूरा विश्व जिस तरह ग्लबोल वार्मिंग के खतरे से चिंतत है, उसके लिए तो प्रतिदिन ही पृथ्वी दिवस मनाया जाना चाहिए। साथ ही, जो लोग पृथ्वी पर बढ़ रहे प्रदूषण से कुंभकर्णी नींद में सो रहे हैं, उन्हें जगाने के लिए भी यह जरूरी है।
आज जरूरत है लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने की। पृथ्वी को हरा-भरा बनाने की। अगर भारत की बात की जाए तो यहां दिन-प्रतिदिन हरे-भरे जंगलों की जगह कंक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं। इंसान ने अपने हाथों ही प्रकृति की नाक में दम करके अपने और अन्य प्राणी जाति का विनाश का सामान तैयार कर लिया है। बढते प्रदूषण से जानलेवा बीमारियों का खतरा बढने की आशंका है। इंसान हर क्षेत्र में चाहे जितनी मर्जी तरक्की कर ले, लेकिन शुद्ध आबोहवा के बिना इंसान स्वस्थ रह कर अपना जीवन खुशहाली से नहीं जी सकता। धन दौलत से इंसान महंगा इलाज करवा सकता है, लेकिन पैसे से अच्छा स्वास्थ्य नहीं खरीद सकता।
इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि इंसान प्रकृति के आगे अभी भी बौना है। आधुनिकता और भौतिकतावाद की अंधी दौड़ में इस कदर दौड़ रहा है कि इंसान को अपने वातावरण का भी खयाल नहीं रहा है। वातावरण के प्रति लापरवाही जीव-जंतुओं और अब खुद इंसान की जान पर भी भारी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसका असर दिखना शुरू हो चुका है। सड़कों का विस्तार करने के लिए भी धड़ाधड़ वृक्षों को काटा जा रहा है। जहां कभी हरे-भरे खेत होते थे या फिर वृक्षों की ठंडी-ठंडी छांव होती थी, वहां अब कई भवन या फिर औद्योगिक इकाइयां स्थापित हो गई हैं।
आज पृथ्वी पर जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण आदि इस तरह बढ़ता जा रहा है कि धरती शायद यही पुकार कर रही होगी की अगर मुझ पर जुल्म करना बंद नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं है जब मुझ पर रहना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए पृथ्वी को सही सलामत रखने के लिए इसे हर तरह के प्रदूषण से बचाना होगा। तभी पृथ्वी स्वर्ग बनी रह सकती है। वरना एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब पृथ्वी पर प्राणी जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए।
’राजेश कुमार चौहान, जालंधर, पंजाब</p>
फिर वही दुख
इसमें दो राय नहीं कि महामारी का जोर फिर बढ़ रहा है और कमोबेश पूर्णबंदी की नौबत सामने आ रही है। गौरतलब है कि इसका असर पूरे देश के लोगों को भुगतना पड़ता है। इस बार फिर इसकी वजह से लोगों के चेहरे पर मायूसी और बेबसी छाई हुई है। उन्हें फिक्र है अपने परिवार और अपने बच्चों की। पूर्णबंदी लग जाने पर एक बार फिर से लोगों में अपने घर लौटने और घबराने जैसा माहौल देखने को मिल रहा है।
लौटते हुए लोगों को देख कर पिछले साल की बेहद दुखद त्रासदी की याद आती है। जबकि उम्मीद थी कि अब वक्त बदलेगा और लोगों के पुराने दिन लौटेंगे, जिसमें रोजी-रोटी की गंजाइश निकलेगी। लेकिन इस बार पहले के मुकाबले ज्यादा तकलीफदेह हालत सामने आ रही है। अब अस्पतालों में भी आॅक्सीजन सिलेंडर की कमी होती जा रही है। सवाल है कि सरकार अपनी व्यवस्था के मोर्चे पर क्या कर रही है!
’सृष्टि मौर्य, फरीदाबाद, हरियाणा