तुगलकी फरमान
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ताजा फरमान है कि अब अंग्रेजी में छपे आलेखों/ रिसर्च पेपरों को ही अकादमिक नियुक्तियों और पदोन्नति के लिए स्वीकार किया जाएगा।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ताजा फरमान है कि अब अंग्रेजी में छपे आलेखों/ रिसर्च पेपरों को ही अकादमिक नियुक्तियों और पदोन्नति के लिए स्वीकार किया जाएगा। यह फरमान तुगलकी है जिसे आज के लोकतंत्र में एक दिन भी सहा नहीं जा सकता। क्या हम वाकई भारत में रह रहे हैं! फरमान से तो ऐसा नहीं लगता। हम भारतीय, जिनकी ज्ञान परंपरा पांच हजार सालों की है, आज उन्हें उन्हीं की चुनी हुई सरकार की एक संस्था विशेष एक भाषा विशेष को सीखने-समझने के लिए बाध्य कर रही है। क्या पांच हजार सालों की हमारी सभ्यता-संस्कृति और विद्वता की गाड़ी को अब तक अंग्रेजी भाषा खींच रही थी? जवाब होगा नहीं। सदियों से हमारा शास्त्र संस्कृत में, लोक अवधी, अवहट्ट और ब्रजभाषा जैसी भाषाओं में संरक्षित रहा। संस्कृत हाशिये पर डाल दी गई और इन लोक भाषाओं को अनुसूची में दर्जा तक नहीं रहा। बहुलता को लोकतांत्रिक और संघीय ढांचे में बांध कर जब आधुनिक भारत बना तब हमारी बोली हिंदुस्तानी हुई।
इन सबके बरक्स मैकाले के कुछ मुट्ठी भर मानस पुत्र हमारे भद्र लोक में छाए रहे हैं। दुखद है कि बहुजन की इच्छा के विरुद्ध आज यही मैकाले पुत्र कभी यूपीएससी में अंग्रेजी को अनिवार्य करते हैं तो अब अकादमिक जगत को एक अस्वाभाविक भाषा में सोचने को मजबूर कर रहे हैं। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस मामले में सीधा हस्तक्षेप करें और इसे निरस्त करें। साथ ही, भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा सुनिश्चित करें क्योंकि उनकी और उनकी पार्टी की छवि, वायदों और सपनों से जनता के मन में यहीं उम्मीदें पली हैं। यदि सरकार इस पर पहल नहीं करती है तब यही करोड़ों टूटे दिल दो साल बाद विपरीत मतदान द्वारा आपकी सत्ता को धो-पोंछ कर रख देंगे।
’अंकित दूबे, जनेवि, नई दिल्ली
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