लोकतंत्र का तकाजा
आज सरकार कोई प्रस्ताव लाती है तो विपक्ष उसके विरोध में खड़ा हो जाता है फिर भले किसी दल की सरकार हो।

आजादी के बाद पश्चिमी देशों का अनुसरण करते हुए जिस दलीय और पक्ष-विपक्ष पर आधारित लोकतंत्र को उत्साह पूर्वक अपनाया गया था वह इन सत्तर वर्षों में विफल सिद्ध होने की कगार पर है। यह व्यवस्था मौलिक रूप से ही दोषपूर्ण मालूम पड़ती है और इसके लिए किसी व्यक्ति या संस्थान पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता। आज हमारे चुने हुए प्रतिनिधि अपनी नब्बे प्रतिशन ऊर्जा प्रतिपक्ष को नीचा दिखने में जाया करते हैं जबकि उनमें मिलजुल कर रचनात्मक निर्णय लेने की क्षमता विद्यमान है पर उसका उपयोग वर्तमान व्यवस्था में नहीं हो पा रहा है। हमारी सभी मूलभूत अवधारणाएं संविधान में अंतर्निहित हैं, फिर अलग से राजनीतिक दल बनाने की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए? क्या आप संविधान से अलग राय रखते हैं? अगर ऐसा है भी तो आप संविधान में प्रक्रियानुसार संशोधन करने को स्वतन्त्र हैं। तो सिद्धांत रूप से अलग राजनीतिक दल की कोई आवश्यकता नहीं है। जब हम अपने प्रतिनिधि सरकार चलाने के लिए चुनते हैं तो क्यों एक प्रतिनिधि सरकार का हिस्सा हो और दूसरा क्यों विपक्ष का?
आज सरकार कोई प्रस्ताव लाती है तो विपक्ष उसके विरोध में खड़ा हो जाता है फिर भले किसी दल की सरकार हो। जो कल तक विपक्ष में एक प्रस्ताव के विरोध में थे वे सरकार में आते ही उसके पक्षधर हो जाते हैं और जो पहले समर्थन में थे विपक्ष में आते ही विरोध में हो जाते हैं। यह जनभावनाओं का मजाक है। अगर कोई भूले-भटके गुण-दोष के आधार पर प्रस्ताव के प्रति अपनी पार्टी से अलग राय व्यक्त कर दे तो फिर न पूछिए, उसका क्या हाल किया जाता है! उसे दल से लेकर मीडिया तक गद्दार करार देकर अविश्वसनीय और खलपुरुष करार दिया जाता है। यही हाल जनता का भी है। जनता अपने पसंद-नापसंद दलों के प्रति प्रतिबद्ध होकर अनावश्यक बहस में उलझी रहती है और किसी को समस्या के मूल में जाकर रचनात्मक निर्णय पर पहुंचने की कोई उत्सुकता दिखाई नहीं पड़ती। तो अपनी आत्मा के अनुसार निर्णय लेने की अनुमति इस व्यवस्था में कहां है? ऐसे में कोई जनप्रतिनिधि क्या देश सेवा करेगा? तो हमें अपनी ऐतिहासिक गलती पहचान कर एक बेहतर विकल्प की तलाश क्यों नहीं करनी चाहिए?
आज हमें इस दलीय लोकतंत्र की जगह एक संवैधानिक लोकतंत्र की आवश्यकता है, जिसमें कोई मान्यता प्राप्त दल न हों, संविधान ही सबका घोषणा पत्र हो और सभी चुने हुए प्रतिनिधि सरकार का हिस्सा हों और नीति-निर्माण में अपना योगदान दें। सभी प्रतिनिधि अपना पक्ष रखने को स्वतंत्र हों और कोई दलीय पूर्वग्रह के नाम पर न अनुशासन भंग करें और न देश का अमूल्य समय व्यर्थ करें। जब तक इस प्रकार का सम्मिलित प्रयास नहीं होगा तब तक देश न आर्थिक और न राजनीतिक रूप से शक्तिशाली होगा। आज चीन जैसे देश का शक्तिशाली होना वामपंथ की सफलता नहीं बल्कि संवैधानिक लोकतंत्र की सफलता ही है, जिसमें कोई मान्यता प्राप्त प्रतिपक्ष की अवधारणा नहीं है।
’शेखर वत्स, एनएफएल विजयपुर, गुना
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