पहले कुछ थी दुनिया, लेकिन आज के दौर में लोग सोशल नेटवर्किंग से लोग हर कार्य संपन्न करते हैं। चाहे वह बैंक हो, व्यवसाय हो या सरकारी दफ्तर हो। सब सोशल मीडिया माध्यम से ही होता है। दरअसल, आज की दुनिया इलेक्ट्रानिक चीजों से भर गई है। आज के दौर में हर किसी के पास रोजगार हो, न हो, मगर मोबाइल फोन जरूर होता है।
सूचनाएं लेने या देने का कार्य करती है मोबाइल। मगर मोबाइल के स्क्रीन पर चलती सोशल मीडिया पर ही टिकी हुई है। सारा भार उसी पर है। आज के दौर में शहरी इलाकों में ज्यादातर बच्चे के पास मोबाइल, लैपटाप जरूर देखने को मिल जाता है। सोशल मीडिया पर संपर्क का दायरा भारत सरकार बहुत तेजी से बढ़ा रही है, ताकि बच्चों का भविष्य बच्चों के हाथ में हो। चाहे आप यहां रहें या कहीं भी जाएं, सोशल मीडिया के माध्यम से कानों कान खबर अच्छी-बुरी मिल जाती है।
अब तो किताब सड़क पर आ गई है और सोशल मीडिया तेजी से बढ़ रही है। अब तो सभी के हाथ में मोबाइल भी है, जिससे आनलाइन किताबें भी पढ़ ली जाती हैं। उसे ई-बुक कहा जाता है। फेसबुक हो या इंस्ट्राग्राम हो, सब सोशल मीडिया के विशेष अंग हैं। जहां नई-नई खबरें मिलती रहती है।काफी लोग खुश भी रहते हैं। सोशल मीडिया तमाम रूपों में कार्य करती हैं। तरह-तरह के मनोरंजन देखने को मिलता है।
समाज दैनिक खबर सोशल मीडिया के माध्यम से प्रति दिन हाथों हाथ मुझे दिखाई और सुनाई देती है। देश विदेश की खबरें हम घर पर ही पा जाते हैं। अब अखबार भी कम आने लगे हैं। सब कुछ मोबाइल में फेसबुक, इंस्ट्राग्राम, यूट्यूब के जरिए पा जाते हैं। सोशल मीडिया का स्तर अब तो इतनी तेजी से बढ़ा है कि लोग पैसे भी साथ में लेके नहीं चलते हैं। चाहे बाजार हो या धार्मिक स्थल हो, सब नेटवर्किंग के जरिए पैसे ट्रांसफर हो जाते हैं।
मनोज कुमार, गोंडा, उत्तर प्रदेश</p>
बढ़ता मर्ज
‘अमीरी का चुनाव’ (संपादकीय, 2 दिसंबर) पढ़ा। लोकतंत्र की मर्माहत वसुंधरा पर कुछ ऐसे चिंतनीय चित्रण हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में दवा ज्यों ज्यों की मर्ज बढ़ता गया का धूमिल प्रतिबिंब देखा जा सकता है। यह सच है कि जब चुनाव टिकट के वितरण वैतरणी में तिजोरी की लहरें अपना प्रकोप दिखा रही हैं तो उससे उत्पन्न भूचाल से क्षतिग्रस्त हमारा प्रजातंत्र का हर कोना एक न एक दिन धराशाई होगा ही। दिल्ली नगर निगम के भाग्य विधातागण अगर अपनी शुद्ध कमाई के आधे हिस्से भी त्राहिमाम करती यमुना की कालिमा को मिटाने में लगाए होते तो शायद वे अपने दायित्व में औसत रूप से सफल होते।
यह चिंता सही है कि वेतन से किसी भी जनप्रतिनिधि की संपदा में अप्रत्याशित इजाफा नहीं हो सकता। यह स्थिति स्पष्टत: संकेत दे रही है कि सभी दलों ने भ्रष्टाचार की मोटी चादर ओढ़ रखी है, जिन पर जांच की आंच दूर दूर तक नहीं आ सकती, क्योंकि वे जांच एजंसियों की मुठ्ठी को अपनी अजेय ताकत से बांधे हुए हैं। विधानसभा और संसद की कुर्सियां इसलिए मौन हैं कि प्रबल हिस्सेदारी और भागीदारी उनके भौतिक भाग्य से समझौता कर बैठी है।
कभी संसदीय समय में भ्रष्टाचार के आरोप लगते ही लोग कुर्सी त्याग कर दिया करते थे, जबकि आज अमीरी चुनाव के प्रथम पायदान पर ही जारी आपराधिक मुकदमे के ब्योरे प्रत्याशियों के शपथ पत्रों में अंकित करने में न तो उनके हाथ में कंपन है, न कोई क्षणिक मलाल। सभी प्रकार के चुनाव में टिकटों की हो रही धनराशि की नीलामी की परिणति है- ‘दस लगाओ तीस पाओ’।
इस दूषित दलदल से उपजी अमीरी का चुनाव लोकतंत्र के संस्थापकों की आत्मा को आज किस रूप में विदीर्ण कर रहा होगा, यह ऐसा बुनियादी सवाल है, जिसे गैर अमीरी चुनाव के पोषक जन प्रतिनिधियों को बौद्धिक बल से दूर करने के उपाय करने होंगे।
अशोक कुमार, पटना, बिहार