आखिर उनकी मौत हो गई। यह घटना एक बार फिर बताती है कि इस देश में अपराधियों के हौसले किस तरीके से बुलंद हैं। उन्हें शायद कानून, संविधान, प्रशासन व्यवस्था, समाज- किसी का भय नहीं है। यह बात बहुत हैरान करती है कि इस तरह की तालिबानी और खतरनाक प्रवृत्ति के लोग समाज में आखिर पनपते कैसे हैं।
यह घटना सभ्य समाज के नाम पर धब्बा है और महिला सुरक्षा के नाम पर जो सरकारें ढोल पीटती हैं, उसकी पोल खोलती है। गौरतलब है कि इंदौर में कुछ समय पहले ‘कमिश्नर प्रणाली’ लागू की गई थी, जिसका मूल उद्देश्य था कि शहर में शांति, महिला सुरक्षा आदि स्थापित की जाए और शहर को अपराध-मुक्त किया जाए। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हमारे देश में इस प्रकार की घटनाएं बारंबार क्यों होती रहती हैं।
इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। मुख्य रूप से पहला कारण है यहां की न्यायिक प्रक्रिया, जिसमें न्याय मिलने में इतना विलंब होता है कि आदमी हार जाता है। आरोपी बेफिक्र रहता है कि अदालत में मुकदमा चलता रहेगा और उसका कोई नुकसान नहीं होगा। जबकि न्यायालय को इन मामलों में तत्काल प्रभाव से कानूनी कार्रवाई के तहत जल्द से जल्द फैसला देना चाहिए, क्योंकि कुछ घटनाओं पर तात्कालिक फैसले अधिक प्रभावी होते हैं।
इसके अलावा, हमारी शिक्षा व्यवस्था और परिवार नियंत्रण की कमी भी एक बड़ा कारण है। अक्सर ऐसी घटनाओं के पीछे व्यक्ति में गुणवत्ता वाली शिक्षा का अभाव होता है। परिवारों को भी यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि उनकी पीढ़ी किन गतिविधियों में लिप्त है। उसके व्यवहार पर नजर रखनी चाहिए। फिर हमारे देश की जटिल कानून प्रक्रिया के बारे में सभी जानते हैं। स्पष्ट रूप से नजर आता है कि अपराधी कौन है और उसने ऐसा क्यों किया है, तब भी यहां की कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आरोपी को अदालत तक पहुंचाने में ही एक लंबा समय लग जाता है।
सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र।
त्योहार बनाम मिलावट
अक्सर पर्व-त्योहार के मौके पर मिलावटी खाद्य पदार्थों की चर्चा जोर-शोर से होने लगती है। लोगों को हिदायत दी जाने लगती है कि वे मिलावटी मिठाई और खाद्य पदार्थों को पहचानें और उससे बचें। आखिर लोगों की जान से खेल कर अपनी तिजोरी भरने की चाहत रखने वाले लोग कैसे धार्मिक, राष्ट्रवादी होने का दावा कर सकते हैं? आम जन का काम है उचित दाम चुका कर वस्तुओं को खरीदना, न कि उसे घर पर लाकर किसी प्रयोगशाला विशेषज्ञ की तरह उस मिलावटी खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की जांच करना। यह काम तो पूरी तरह प्रशासन का है।
व्यापार का भी एक सिद्धांत, नियम, कसौटी है। गांधीजी के इस संबंध में स्पष्ट विचार हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि सभी अपने अपने कर्म से विरत हो रहे हैं। आमजन रोजी-रोटी-रोजगार के प्रबंध में जुटा है। पर्व-त्योहार के मौके पर उसे अवकाश मिलता है। वह अपनी सीमा, क्षमता में रहकर खुशियां मनाएं या मिलावटी खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की जांच करे? हालांकि जो व्यापारी मिलावटी खाद्य पदार्थों को बेचते हैं।
उसका विरोध व्यापारी समुदाय को भी करना चाहिए। ऐसे लोगों को हतोत्साहित करना चाहिए, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई कराना चाहिए, ताकि वे ऐसे मिलावटी खाद्य पदार्थों को बेचने से परहेज करें। अनुचित लाभ कमाना कभी व्यापारिक मानक नहीं हो सकता है। लिहाजा रंग में भंग न पड़े, इसके लिए चतुर्दिक प्रयास की जरूरत है।
मुकेश कुमार मनन, पटना।
न्याय का दरवाजा
भारतीय न्याय व्यवस्था में समय और न्याय के बीच दूरियां बढ़ रही हैं। न्यायालयों में लंबित मामलों के चलते न्याय पाने वालों का खर्च और धैर्य शक्ति जवाब दे रही है। एक मामले की सालों साल सुनवाई चलने पर लोग बुरी तरह प्रभावित होते हैं। वहीं यह परिस्थिति उनका मनोबल तोड़ देती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) की स्थिति और बदहाल होने का अहसास करा देती है कि असली तस्वीर क्या है। वर्ष 2022 के आंकड़ों पर ही गौर करें तो न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों के अदालतों में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित पड़े हैं। जहां उच्चतम न्यायालय में 64 हजार, उच्च न्यायालय ने 56 लाख, वहीं जिला और अधीनस्थ अदालतों में कई करोड़ मामले लंबित हैं।
लोकतंत्र लोकसत्ता पर आधारित होता है। अच्छी न्याय व्यवस्था लोगों को लोकतंत्र में उपलब्ध करवाना सर्वप्रथम कर्तव्य होना चाहिए। इसमें सरकार और उसकी नीतियां सबसे बड़ी भूमिका निभाती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्याय जल्दी क्यों नहीं मिलता है? यह एक विवादास्पद सवाल है। हालांकि इसके पीछे कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं।
जैसे विधि आयोग द्वारा बार-बार सिफारिश करने पर भी सरकार द्वारा न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात में वृद्धि को स्वीकार नहीं किया जाना और तत्काल नियुक्तियों जैसे कदम उठाने में लापरवाही होना। अब भारत विकसित देश बनने की ओर अग्रसर है, इसलिए भारतीय न्याय व्यवस्था में सुधार किए जाने की आवश्यकता है। वैसे भी हर भारतीय अच्छी न्याय व्यवस्था की अपेक्षा करता है और भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में अच्छी न्याय व्यवस्था का होना अनिवार्य है।
निखिल रस्तोगी, कुरुक्षेत्र, हरियाणा।
मां की सेहत
एक स्वस्थ बच्चे की मां बनने के लिए कुछ जरूरी और महत्त्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखना और साथ-साथ खानपान की चीजों को सही समय से और सही समय पर करना जरूरी हो जाता है। इसके अलावा, खुश रहना और विचार प्रक्रिया को मजबूत बनाए रखना भी गर्भ में पल रहे भ्रूण के लिए बहुत बेहतर माना जाता है। लेकिन भारत में स्त्रियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण की वजह से वास्तविकता क्या है, यह सब जानते हैं।
बुनियादी स्तर पर भेदभाव की दृष्टि की वजह से ही महिलाओं की सेहत से लेकर मनोस्थिति तक ऐसी होती है कई बार गर्भावस्था उसके लिए बोझ बन जाती है। इस मसले पर समूचे समाज और सरकार को संवेदनशील तरीके से सोचना चाहिए। वरना एक कमजोर और बीमार स्त्री भावी स्त्री के भीतर भी अपनी ही लाचारी स्थानांतरित करेगी।
तारामुनी देवी, लालगंज, वैशाली।