चिंता का दौर
महंगाई का यह दौर आम आदमी की कमर तोड़ रहा है। दूसरी ओर, बेरोजगारी का आलम भी बढ़ता ही जा रहा है।

महंगाई का यह दौर आम आदमी की कमर तोड़ रहा है। दूसरी ओर, बेरोजगारी का आलम भी बढ़ता ही जा रहा है। महामारी के दौर ने जहां साधारण लोगो से उनके रोजगार तक छीन लिए, वहीं डिग्रीधारी लोग भी हाथ बांधे बैठे रहने के अलावा कुछ कर नहीं पा रहे हैं। सरकारी नौकरियों के लिए निकलने वाली वेकेंसी भी नाममात्र आ रही है और अब उसकी गुंजाइशें भी लगभग खत्म होती जा रही हैं। युवा के लिए उसकी डिग्री होना, न होना एक समान होने लगा है।
स्कूल में जितने शिक्षक होने हैं, उनमें से कितने पद रिक्त पड़े हैं? सरकार का मानना है कि उसके पास पैसे नहीं हैं। देश की अर्थव्यवस्था इतनी खराब हो चुकी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार जो तेल कम दामों पर खरीद रही है, उनकी कीमत यहां के बाजार में तीन गुना ज्यादा हो जाती है। सवाल है कि सरकार पेट्रोल-डीजल के दाम तक कम क्यों नहीं कर पा रही है, जबकि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम है। रसोई गैस की कीमतों की हालत अब बेकाबू हो चुकी है। इसके असर से बढ़ी महंगाई ने रसोई घर में पकने वाले खाने तक को चिंता का मामला बना दिया है।
सरकार को पैसा चाहिए तो वह कृषि क्षेत्र का निजीकरण करने पर उतारू है। अगर यह व्यवस्था बनी तो किसान को खेती के लिए पूरी तरह उद्योगपतियों पर निर्भर होना पड़ेगा। करीब तीन महीने से चल रहे किसान आंदोलन की मांग यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी के साथ-साथ तीनों कानूनों को रद्द किया जाए, ताकि किसान और देश के लोग बच सकें।
लेकिन सरकार इस मसले पर कोई आश्वासन देने को तैयार नहीं है। सवाल है कि इस तरह बाजार और उसमें उपभोक्ताओं की क्या हालत होगी? बेरोजगारी और महंगाई से जूझते लोग कृषि क्षेत्र में पैदा होने वाले संकट के बाद किस दशा में चले जाएंगे? युवा के पास रोजगार नहीं है, कॉलेज बंद हैं, लेकिन फीस वसूली जा रही है सिर्फ आॅनलाइन कक्षा के नाम पर। किसानों के बच्चे इस गुस्से में बड़ी तादाद में किसान आंदोलन में भाग ले रहे हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
सब कुछ का अगर निजीकरण ही करना है तो आम आदमी अपने लिए इन नेताओं को क्यों चुने? अब तो यह आशंका भी खड़ी हो रही है कि क्या भविष्य में सब कुछ उद्योगपतियो के हाथों में नियंत्रित होगा! सच यह है कि आज हर युवा और बच्चे पढ़ने की इच्छा रखते हैं और इसके लिए सतर्क हैं, क्योंकि इसके जरिए वे अच्छा रोजगार पाएं सकेंगे। लेकिन क्या मौजूदा परिस्थितियों में युवाओं को रोजगार मिलेगा? अगर युवा दिशाहीन हो गए तो देश की कैसी तस्वीर बनेगी?
’मोनिका सिन्हा, पालम, नई दिल्ली
जवाबदेही का घेरा
‘तेल का खेल’ (संवाद, 23 फरवरी) पढ़ा। आमतौर पर भाजपा सरकार हमेशा गुनाहों का गुब्बारा कांग्रेस या दूसरी पार्टियों पर फोड़ती है। इसी क्रम में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया गया। जबकि मई 2014 में जब भाजपा की सरकार बनी, उस समय जो कीमत (106.85 डॉलर प्रति बैरल) थी, अब उसकी लगभग आधी (54.79 डॉलर प्रति बैरल) हो गई है। लेकिन देश में वर्तमान कीमतें उससे दोगुनी रफ्तार से आसमान छू रही हैं। इस पर सरकार को चाहिए कि सुधार की कोशिश करे, लेकिन जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने का क्या हासिल होगा।
सभी जानते हैं कि पेट्रोल-डीजल की आधार कीमतों पर आयात कर और राज्य कर लगता है। लेकिन वस्तु की आधार कीमत से अधिक आयात कर किसी मजाक की तरह लगता है। शायद सरकार समझती है कि ज्यादातर लोग चूंकि गैरजागरूक और जानकारी से वंचित हैं, इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा। भारत में पेट्रोल-डीजल की खपत यातायात और कृषि क्षेत्र में सबसे ज्यादा है, लेकिन कृषि उत्पादों का औसत मूल्य पिछले कई सालों से ठहराव की स्थिति में है। ऐसे में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि कृषि क्षेत्र की कमर तोड़ने जैसा है।
जब भी बात मूल्यांकन की आती है, हम पड़ोसी देशों से अपनी तुलना करते हैं। लेकिन यह तुलना पेट्रोल-डीजल के दामों पर आकर रुक जाती है। ऐसा क्यों? मौजूदा कीमतों के लिए जिम्मेदार केवल सरकार को ठहराना मेरी राय में सही नहीं है। इसके लिए विपक्ष भी बराबर का जिम्मेदार है। इस विपक्ष शब्द में केवल विपक्षी पार्टियां नहीं, संपूर्ण भारत का वह हर नागरिक शामिल है जो सरकार से प्रत्यक्ष संबंध नहीं रखता। लोकतंत्र का यही तरीका होना चाहिए कि जनता सदैव विपक्ष के साथ खड़ी हो और विपक्ष जनता के साथ, ताकि देश उन्नति की ओर अग्रसर रहे और सरकार गलतियां करने से बचे।
’दीपक, उन्नाव, उप्र