अब जहां संसद में कागजरहित काम की बात हो रही है वहीं संसदीय बैठकें आनलाइन आयोजित हो रही हैं। इस बदलाव का कारण बताते हुए सरकारें कहती हैं कि आधुनिक तकनीकों को अपनाना आधुनिकता को बढ़ावा देना है और सबसे महत्त्वपूर्ण पर्यावरण की सुरक्षा करना है।
यह बात काफी हद तक सही है, लेकिन सवाल यह है कि आधुनिक तकनीकों पर पूर्ण रूप से निर्भर होना क्या सरकारों के लिए सही होगा? इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं। पहला, सरकारों के लिए सही है क्योंकि यह बदलते समय और प्रस्तुत परिवेश से सामंजस्य स्थापित करता है। दूसरा, इसलिए सही नहीं है क्योंकि आधुनिक तकनीकें कभी भी जवाब दे सकती हैं, बिगड़ सकती हैं। जबकि पारंपरिक तकनीकों में ऐसा होने की संभावनाएं न के बराबर होती हैं। दरअसल, आज यह एक बड़ी चर्चा का विषय बन चुका है। पक्ष और विपक्ष के बीच इस मुद्दे पर सालों से जुबानी दंगल हो रही है।
उदाहरण के रूप में जहां इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की विश्वसनीयता पर बहसबाजी होती हैं, वहीं ई-संसद या डिजिटल संसद प्लेटफार्म एक चर्चित मुद्दा बन जाता है। यह कहा जा सकता है कि सरकारों को आधुनिक होने की आवश्यकता है, लेकिन पूर्ण रूप से आधुनिक तकनीकों पर निर्भर होना घातक साबित हो सकता है। इससे सरकारों को बचने की जरूरत है।
संसार आधुनिक युग में जी रहा है और आधुनिकता से दूर रहना सही नहीं है, लेकिन कार्य पूरा करने के लिए पूरी तरह आधुनिक तकनीकों पर ही निर्भर रहना भी गलत है। जरूरत है कि सरकार इस बात को समझे और एक संतुलन बनाए रखने की कोशिश करे।
निखिल रस्तोगी, कुरुक्षेत्र विवि।
वृक्ष का जीवन
वर्तमान परिदृश्य में जिस तरह प्रकृति की अनदेखी कर विकास को गति दी जा रही है, वह वास्तव में चिंतनीय है। पर्यावरण को बचाने के लिए तमाम तरह के कार्यक्रम चलते रहते हैं। शैक्षिक संस्थानों से लेकर सरकारी दफ्तरों में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता अभियान भी चलाए जाते हैं। प्रकृति को हरा-भरा रखने के लिए अधिक से अधिक पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया जाता है।
प्राकृतिक आपदाएं ताकीद करती हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम भीषण होगा। उसके बाद भी मानव से लेकर व्यवस्था तक संजीदगी नहीं दिखा रहा है। विकास के नाम पर हरे-भरे वृक्षों की कटाई हो रही है। सड़कें भले ही विकास का सूचक मानी जाती हैं, लेकिन चमचमाती हुई सड़कें बनाने के लिए प्रकृति की अनदेखी कर जीवनदायी वृक्षों को उजाड़ना विकास नहीं, बल्कि विनाश की ओर ले जाता है।
याद रहे कि कोरोना महामारी के दौर में आक्सीजन न मिलने की वजह से कई जिंदगियां मौत आगोश में समा गर्इं। वह भयानक त्रासदी याद कर सिहरन पैदा हो जाती है। ‘सांसें हो रही हैं कम, आओ पेड़ लगाएं हम’ जैसे शब्दों को मतलब तभी सार्थक होगा, जब हम पौधारोपण के साथ-साथ प्रकृति की अनमोल धरोहर को सहजने के लिए अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाएंगे। पौधारोपण के लिए सभी का योगदान आवश्यक है। अगर अभी भी नहीं चेते, तो भविष्य में परिणाम और भी विकराल होंगे। प्रकृति अपने साथ दुर्व्यवहार का बदला जरूर लेती है।
हृदेश गुप्ता, शाहजहांपुर, उप्र।
मनुष्य और मौसम
जलवायु ऐसा पहलू है जो दुनिया के हर इंसान के जीवन से जुड़ा हुआ है। हालांकि इसके बावजूद मानव पर्यावरण को प्रदूषित होने से रोकने के लिए कुछ सख्त कदम नहीं उठा रहा है। अगर मौजूदा रफ्तार से जलवायु बिगड़ता होता रहा तो सबसे ज्यादा नुकसान मानव को ही होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कई सम्मेलनों में कई लक्ष्य व उद्देश्य रखे गए, लेकिन कोई भी देश इन लक्ष्यों को पूरा करने में असमर्थ रहा है। लेकिन जलवायु को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले विकसित देश अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहते हैं।
मौसम की अपनी गति होती है और उसके मुताबिक इस मौसम में भी हल्की बारिश स्वाभाविक है। लेकिन हाल ही में कई राज्यों में सर्दी के मौसम में भी जिस तरह मूसलाधार बारिश हुई, उसने कुछ अप्रत्याशित कारणों के बारे में सोचने पर मजबूर किया। इसकी वजह से कई लोगों के स्वास्थ्य, कृषि आदि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। अगर प्रकृति के साथ मानव खिलवाड़ करेगा, तो प्रकृति भी उसका बदला मानव को जरूर देगी।
पूरे विश्व भर में जलवायु परिवर्तन से सूखा, बाढ़, भूमि अपरदन, स्वास्थ्य समस्या, आदि बहुत बड़ी समस्याएं हैं। इसलिए सभी देशों को मनुष्य जीवन को सुरक्षित रखने के लिए संतुलित विकास के लक्ष्य को पूरा करना होगा। तभी जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण पाया जा सकेगा। गांधीजी ने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही थी कि ‘प्रकृति मानव की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन उसकी लालच को नहीं।’
नोमान अहमद खान, ओखला, नई दिल्ली।
नशे का जाल
आज रहन सहन और खानपान का दौर ही बदल गया है। नएपन को स्वीकारना और दिखावा करना एक जीवन पद्धति बन चुकी है। ऐसे में आधुनिकता के तमाम विकार परिलक्षित होने लगे हैं। आजकल नशा एक आदत-सा बन चुका है, जिसकी गिरफ्त में युवा अधिक हैं। लड़के और कई लड़कियां भी इसके आदी हैं। इससे समझा जा सकता है कि नशे का शौक किस पीढ़ी तक और कहां तक पहुंच चुका है।
परिदृश्य में जो ताजे बदलाव नजर आ रहे हैं, उनमें कहीं न कहीं हमारी युवा पीढ़ी अधिक निमग्न है। बेढंगा खानपान और असंयमित जीवन के मायने आजकल आधुनिकता की पहचान बन चुके हैं। इसी फैशनपरस्ती में नशा एक अनिवार्य शर्त की तरह देखा जाने लगा है, जिसकी होड़ युवाओं में नजर आती है। अगर विद्यार्थी जीवन को नशे से नहीं बचाया गया तो आने वाली पीढ़ी न सिर्फ नशे की आदी होगी, बल्कि मानसिक अवसाद से भी घिरी रहेगी, जिसके दुष्परिणाम आसानी से समझा जा सकते हैं।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर।