लेकिन पिछले कुछ वर्षों में क्या किसी एक भी बुराई का खात्मा होने का दावा किया जा सकता है? देश में वर्षों से महिलाओं के खिलाफ अत्याचार हो रहे हैं। इस पर रोक क्यों नहीं लगी? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? निर्भया के साथ जब दरिंदगी हुई, तब पूरे देश में गुस्से की लहर थी।
इस वीभत्स कांड के बाद देश में धरने-प्रदर्शन हुए, जुलूस निकाले गए। एक बार तो लगा कि शायद अब कभी भी किसी भी लड़की को इस तरह के हालात से नहीं गुजरना पड़ेगा। लेकिन हम गलत थे। आज भी प्रतिदिन न जाने कितनी मासूम बच्चियों के साथ ऐसी दरिंदगी होती है जैसी निर्भया के साथ हुई। हाल ही में कंझावला में जो वहशीपन युवती के साथ हुआ, सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
पैरों में पहने हुए जूते में एक छोटा-सा सरसों के दाने जितना कंकड़ भी घुस जाता है तो बेचैनी हो जाती है। जब तक हम जूता खोलकर उस कंकड़ को बाहर नहीं निकाल देते, तब तक चैन नहीं मिलता। फिर कैसे उन युवाओं को यह पता भी नहीं चला कि उनकी कार से कोई टकराया है और केवल टकराया नहीं, बल्कि कई किलोमीटर तक घसीटता जा रहा है? क्या यह भी उनके लिए एक रोमांच था? कहा जा रहा है कि वे लोग नशे में थे।
फिर पुलिस का बैरियर देखकर उन्होंने गाड़ी वापस क्यों मोड़ ली थी? इसका मतलब कि वे नशे में तो थे, लेकिन फिर भी होश में थे। पुलिस ने भी गाड़ी मोड़ने वाले का पीछा करके नहीं रोका। आरोपियों ने युवती की स्कूटी से टकराने के बाद कार रोकने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या उन पांचों में से कोई भी ऐसा नहीं था जो कार को रुकवाता? कानून का डर उन्हें क्यों बिल्कुल नहीं था? उन युवकों को सख्त सजा मिलनी चाहिए, ताकि दूसरों के लिए एक मिसाल बने। केंद्र सरकार को भी, जिसके ऊपर दिल्ली की कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है, यह दायित्व निभाना पड़ेगा कि पहले हम अपने घर में सुधार करें, फिर विश्वगुरु होने के सपने देखें।
चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली
ज्ञान का सृजन
भोजन पात्रों में मौजूद हो, लेकिन उसे परोसा न जाए तो लोगों को उसके स्वाद का पता कैसे लगेगा और उनकी क्षुधा तृप्ति कैसे होगी? इसलिए भोजन को कलात्मक ढंग से परोसना एक उपलब्धि है। इतना जरूर है कि भोजन परोसा तभी जाएगा जब उसे किसी रसोइए ने पका लिया होगा। ज्ञान पर भी यही बात लागू होती है। उसे जन साधारण को उनकी समझ में आने वाली भाषा में परोसना एक कला है, लेकिन इससे भी बड़ी कला है ज्ञान का मौलिक सृजन और उसका विस्तार करना। भारतीय युवाओं को यह बात गहराई से समझनी होगी। तभी देश विश्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर पाएगा। कोरी लफ्फाजी से कुछ होने वाला नहीं। राष्ट्र निर्माण के लिए कड़ी मेहनत, लगन और मौलिक सूझबूझ की जरूरत होती है।
सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली</p>
बंटी हुई नजर
सरकार की कोरोना काल मे शुरू की गई मुफ्त राशन योजना को और एक विस्तार देते हुए एक साल की अवधि के लिए बढ़ा दिया गया। यह योजना उन गरीबों के जीवन का आधार है जो दो जून रोटी भी नही कमा पा रहे। कुछ अर्थशास्त्रियों और अमीरों को यह योजना सरकार पर बोझ लगती है। कल्याणकारी सरकार चाहे देश की हो या विश्व में कोई और, अपने नागरिकों के कल्याण के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाती रहती हैं। आज देश में सरकार मुफ्त इलाज की भी सुविधा दे रही है। खाद पर सबसिडी दी जा रही है, किसानों को सम्मान निधि दी जाती है। ये सब लोगों के उत्थान की योजनाएं हैं, जिनको आजकल रेवड़ी भी कहा जाने लगा है। देश की जनता के हित मे ये सब जरूरी हैं।
जब देश के चंद धनाढ्य लोगों का लाखों करोड़ ऋण को ‘राइट आफ’ किया जाता है, वह सरकार पर बोझ नहीं बनता तो ये करोड़ों लोगों की मामूली-सी सहायता रेवड़ी कैसे? महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी की दशा में मुफ्त राशन योजना को अगर ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ में बदल दिया जाए तो सबसे अच्छा होगा, क्योंकि तब सबको, चाहे वह करोड़पति हो या झुग्गी वाला, एक सुनिश्चित राशि ही मिलेगी। इस योजना के लिए सबसे अधिक अमीरों पर कर लगाकर पैसा लिया जा सकता है।
मुनीश कुमार, रेवाड़ी, हरियाणा
विचार की राह
आजकल सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक न जाने कितनी चीजों को लेकर नए-नए विचार आते रहते हैं। वैसे भी हम भारतीय नए विचार या आइडिया देने में हमेशा आगे रहे हैं। किसी का कोई काम बिगड़ रहा हो तो उसे सही करने की सलाह देना, कहीं कोई सेवा खराब मिल जाए तो उसे कैसे सही करें, इस बारे में राय देना और साथ में यह कहना कि अगर यह चीज ऐसे हो जाए तो हमारी समस्या दूर हो जाएगी।
दरअसल, परेशानी को दूर करने के लिए ही कोई काम-धंधा शुरू किया जाता है, पर कई बार दिमाग चलता नहीं दौड़ता है और दौड़ते-दौड़ते कुछ नया करने के लिए फिर कोई नया विचार सोच लेता है। लेकिन सभी विचारों या उपायों पर एक साथ काम करना संभव नहीं है। ऐसे में अगर हमारे दिमाग में एक से ज्यादा विचार आए तो किसी एक ही उपाय को चुनना चाहिए और उस पर काम करना चाहिए।
ऐसे में बात यह आती है कि सही उपाय या विचार का चुनाव कैसे करें। किन-किन बातों का ध्यान रखें? किसी भी विचार पर काम की शुरुआत करने से पहले सर्वे कराने की जरूरत होती है। प्रतियोगियों को खंगालना चाहिए। सही जगह और लक्षित समूहों को चुनना, उसमें बदलाव लाना और फिर जोखिम के लिए तैयार रहना चाहिए। अनुभव जरूर लिया जा सकता है, कानून ध्यान में रखना चाहिए।
दिल की सुनने के बजाय दिमाग की सुनना चाहिए। इन्हीं सब बातों का ध्यान रखकर हम सही विचार और उपाय का चुनाव कर सकते हैं। विचार ऐसा हो जो लोगों की परेशानी कम करे या जिस सेवा की लोग कमी महसूस करते हैं, उसे पूरी कर सकें। कीमत कम हो, इस्तेमाल आसान हो, पारदर्शिता हो, परेशानी न हो। यह सबके लिए अच्छा होता है।
तनुजा उपाध्याय, देवली गांव, दिल्ली