शिक्षा का सुध
अरमान की टिप्पणी ‘विषमता का पाठ’ (दुनिया मेरे आगे, 8 दिसंबर) में आमना जैसे बच्चों का या उनकी ओर से यह सवाल बिल्कुल सही है कि हमारा देश अपने सारे बच्चों को बिना भेदभाव के समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्यों नहीं दे रहा है? यहां अभिजात वर्ग के निजी स्कूल हैं जिनमें तमाम सुख-सुविधाएं हैं और […]
अरमान की टिप्पणी ‘विषमता का पाठ’ (दुनिया मेरे आगे, 8 दिसंबर) में आमना जैसे बच्चों का या उनकी ओर से यह सवाल बिल्कुल सही है कि हमारा देश अपने सारे बच्चों को बिना भेदभाव के समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्यों नहीं दे रहा है? यहां अभिजात वर्ग के निजी स्कूल हैं जिनमें तमाम सुख-सुविधाएं हैं और गुणवत्ता है। केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय भी गुणवत्तापूर्ण कहे जा सकते हैं। लेकिन ज्यादातर बच्चे राज्य सरकारों द्वारा संचालित स्कूलों में हैं जिनकी गुणवत्ता का निम्न स्तर चिंताजनक है। मगर यह सही नहीं है कि ये साधनहीन हैं और अप्रशिक्षित या कम वेतन वाले पैरा शिक्षकों के हवाले हैं। सर्वशिक्षा अभियान के तहत पिछले सालों में इन सरकारी स्कूलों में संसाधन जुटे हैं और शिक्षकों के वेतन-भत्तों में भारी बढ़ोतरी हुई है। वर्तमान में नियमित शिक्षकों का वेतन महंगे निजी स्कूलों के शिक्षकों से ज्यादा ही है, कम नहीं।
उत्तराखंड के नगरीय क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता सबसे खराब पाई जाती है और छात्र संख्या बहुत ही कम रहती है। जबकि इनमें शिक्षकों की संख्या सुगमता के कारण पर्याप्त रहती है और वे नियमित और अनुभवी होते हैं। इस सवाल का उत्तर नहीं मिलता कि इनमें बच्चे क्यों नहीं हैं और क्यों गरीब से गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने को तैयार नहीं हैं? जहां तक नवोदय विद्यालयों की बात है, दिवंगत राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, उन्होंने ‘गरीब बच्चों के कॉन्वेंट स्कूल’ के तौर पर इनकी शुरुआत की थी। लेकिन सुनने में आता है कि इनमें श्क्षिा का स्तर पहले जितना अच्छा नहीं है। साथ ही ये ग्रामीण बच्चों के लिए हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में तैनात संपन्न सरकारी कर्मचारियों के बच्चे इनका लाभ उठाते आए हैं और आश्चर्य नहीं कि आमना जैसे गरीब परिवारों के बच्चे वंचित रह जाते हैं। अक्सर जब मैं मंदिरों में होने वाले भंडारों में भूखे गरीब लोगों की बजाय खाते-पीते परिवारों के लोगों को छक कर खाते और खाना ‘पैक’ करके घर ले जाते देखता हूं तो मुझे आमना जैसे बच्चों का स्मरण होता है। उपर्युक्त लेख में कुकुरमुत्तों की तरह गांव, कस्बों में गली-गली खुल रहे निजी स्कूलों का उल्लेख नहीं है, जिनमें नामांकन निरंतर बढ़ रहा है और ऐसा इनमें आवश्यक संसाधनों (भवन, खेल मैदान, उपयुक्त कमरे आदि) और योग्य-प्रशिक्षित शिक्षकों की बेहद कमी के बावजूद हो रहा है।
अधिकतर स्कूलों में एक हजार से पांच हजार मासिक वेतन वाले शिक्षक हैं, जबकि सरकारी प्राइमरी स्कूल के नियमित शिक्षक को पचीस हजार रुपए से ज्यादा शुरुआती वेतन मिल रहा है। इनमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल पा रही है ऐसा बिल्कुल नहीं है, लेकिन कम से कम ये नियमित खुलते हैं और पढ़ाई होती तो है। फिर सवाल उठता है कि यहां भीड़ कैसे है जबकि बेहतर सुविधा वाले राज्य सरकार के स्कूलों में छात्र संख्या लगातार गिरती ही जा रही है और इनमें से कई बंद करने पड़ रहे हैं।
ध्यान देने की बात यह भी है कि इन सरकारी स्कूलों में शिक्षा, किताबें मुफ्त होने के साथ ही दोपहर के भोजन की सुविधा भी दी जा रही है। जहां तक मेरा अनुभव और समझ है, केवल धन या संसाधनों का अभाव शिक्षा की गुणवत्ता में कमी का कारण नहीं है। शिक्षकों की पर्याप्त संख्या, अपने काम के प्रति निष्ठा और इसके लिए उन्हें सरकार से आवश्यक स्वतंत्रता और उचित वातावरण मिलना चाहिए। वैसे सबसे अच्छा तो यही होना था कि इतने तरह के स्कूलों की व्यवस्था बंद करके एक समान गुणवत्ता के स्कूलों में ही सबको पढ़ने का अवसर मिल पाता। लेकिन सरकार में ऐसा सोच कहीं दूर तक भी नहीं नजर आता!
’कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा
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