भारत वह देश माना जाता रहा है जहां महिलाओं का स्थान सर्वोपरि है। लेकिन अब वह छवि धूमिल हो रही है। हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग ने देश में महिलाओं के बढ़ते यौन उत्पीड़न को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए सभी राज्यों से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून को सख्ती से लागू करने का आह्वान किया। आज यौन उत्पीड़न जैसे अपराध दिनोंदिन तेजी से अपने पांव पसार रहे हैं।
इस पर त्वरित कार्रवाई एवं कठोर कानून बनाने की सख्त जरूरत है, ताकि ऐसी विक्षिप्त मानसिकता वाले अपराधियों को एक सख्त संदेश दिया जा सके। साथ ही महिलाओं को जागरूक करना बेहद जरूरी है, ताकि वे अपने ऊपर हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने में पूरी तरह से सक्षम हो सकें।
बीते वर्ष अगस्त में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने भारत में 2021 में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामलों में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें सिर्फ बलात्कार के 31,677 मामले सामने आए थे। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम पर जेएस वर्मा समिति की सिफारिशों को लागू करने की आवश्यकता है। अधिनियम में एक आंतरिक शिकायत समिति आइसीसी के बजाय एक रोजगार न्यायाधिकरण की स्थापना बेहद जरूरी है। शिकायतों का त्वरित निपटान सुनिश्चित करने के लिए समिति ने प्रस्ताव दिया कि न्यायाधिकरण को एक सिविल कोर्ट के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए।
राष्ट्रीय महिला आयोग को जनवरी 1992 में एक वैधानिक निकाय के रूप में स्थापित किया गया था। इसका कार्य महिलाओं के लिए संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा उपायों को पुख्ता और उसका निरीक्षण करना है। यह उपचार विधि उपायों की सिफारिश भी कर सकता है। आज भारत में महिलाओं की भूमिका का लगातार विस्तार हो रहा है और राष्ट्रीय महिला आयोग की भूमिका का विस्तार समय में बड़ी मांग है। इसके अलावा, राज्य आयोगों को भी अपनी भूमिकाओं को ज्यादा बढ़ाना चाहिए।
महिलाओं के लिए शिक्षा, समानता विकास आदि के साथ-साथ महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों को भी समय-समय पर निरीक्षण करने की जरूरत है। कुल मिलाकर सतत विकास लक्ष्यों का वादा महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को समाप्त किए बिना पूरा नहीं किया जा सकता। महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए सिर्फ कानूनी अदालत में ही हल नहीं किया जा सकता है। बल्कि अपने स्तर पर भी हल किया जाना चाहिए। इसके लिए एक सही दृष्टिकोण और सुदृढ़ तंत्र की जरूरत है।
समराज चौहान, कार्बी आंग्लांग,असम।
सद्भाव का तकाजा
हाल ही में आई खबर के मुताबिक, संघप्रमुख का कहना है कि हिंदू समाज आज भी एक युद्ध लड़ रहा है… लड़ाई बाहरी दुश्मन से नहीं, अंदरूनी दुश्मन से है। हो सकता है कि इस तरह की बातों से एक खास सांचे में ढला हिंदू मानस धन्य हुआ हो। पर सच्चाई यह है कि उससे हटकर भी एक हिंदू मानस देश में मौजूद है।
इस तरह की टिप्पणी ने देश की उस बड़ी सर्वव्यापी जमात को सवालों के बीच लाकर छोड़ दिया कि कैसा युद्ध, कौन अंदरूनी दुश्मन! अब तक न उसे किसी युद्ध की भनक मिली और न ही वह ऐसे किसी दुश्मन की पहचान कर पाया। वह हैरान है कि कहीं उसका इतिहास-बोध कमजोर तो नहीं, जिसे लेकर इस तरह उसे चेताने की कोशिशें हो रही है। एक सवाल यह भी कि क्या ‘हिंदू जाग गया’ जैसी टिप्पणी पिछले कुछ समय से चल रही कुछ अन्य इसी संदर्भ में आए बयानों की कड़ी तो नहीं है!
बहरहाल, ऐसे बयान देकर किसी को भी अपने धर्म की श्रेष्ठता का बखान न करने की नसीहत दी जा रही है, पर सच यह है कि हिंदू धर्म की श्रेष्ठता का मानदंड अयोध्या, काशी, मथुरा या चारधाम नहीं, बल्कि हिंदू मानस की एक उदार छवि है, जो तथाकथित साधु-साध्वियों द्वारा उगले जा रहे धार्मिक कट्टरता, नफरत और हिंसा के जहरीले बयानों का खंडन करती है।
एक आम इंसान के नाते यह कहा जा सकता है कि हिंदू समाज सदैव से अहिंसक रहा है और इसमें अपने ही धर्म की कट्टरपंथी सोच का विरोध करने वाले लोगों का प्रतिशत आज भी सभी धर्मों से ज्यादा है। पता नहीं क्यों, मगर ऐसा लगता है कि मीडिया के विविध मंचों पर विराजित जो वक्ता अपने कट्टरपंथियों के उकसावे के बावजूद सांप्रदायिक विचारधारा का विरोध और देश के लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन करते हुए दीखते हैं, सही मायनों में हिंदू धर्म की श्रेष्ठता को वही रेखांकित करते हैं।
शोभना विज, पटियाला, पंजाब।
प्रकृति के साथ
भारतीय संस्कृति में विकास की अवधारणा प्रकृति से जुड़ी रही है। यहां वृक्षों, नदियों और पर्वतों को भी पूजने की परंपरा है। इसके पीछे उद्देश्य यही रहा कि प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से हो। धीरे-धीरे समय बदला और विकास की पश्चिमी अवधारणा हावी होती चली गई। बेतहाशा पेड़ काटे गए। दशकों तक प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों की अनदेखी कर विकास की राह पर बढ़े कदम अब विनाश की गाथा लिख रहे हैं। जोशीमठ एक उदाहरण मात्र है।
प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। इसका यह अर्थ यह कतई नहीं है कि विकास की राह पर बढ़ना ही नहीं चाहिए। विकास अपरिहार्य है। हमें बिजली चाहिए और मजबूत बुनियादी ढांचा भी चाहिए। आवश्यकता विकास के तौर-तरीके को बदलने की है। दरअसल, विकास और पर्यावरण दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं।
भारत को विकास के लिए पश्चिम के तौर-तरीकों पर निर्भर रहने की नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ने की आवश्यकता है। इसके लिए हर स्तर पर प्रयास करना होगा। सरकार और प्रशासन को विकास योजनाएं बनाते समय प्रकृति के साथ साम्य ध्यान में रखना होगा। जन जागरूकता की भी आवश्यकता है। जोशीमठ प्रशासनिक विफलता के साथी जन चेतना की कमी का भी परिणाम है। नियमों को ताक पर रखकर होने वाले निर्माण प्रशासन के साथ-साथ उन पर भी प्रश्न खड़ा करते हैं, जिन्होंने निर्माण किया है।
इसी तरह पर्यटन के नाम पर पहाड़ों पर जुट रही भीड़ पर भी संतुलित दृष्टिकोण से विचार करना होगा, तभी हम भविष्य में और जोशीमठ जैसी त्रासदी से बचने में सक्षम हो पाएंगे। भारत का पड़ोसी देश भूटान दुनिया के सबसे खुशहाल देशों में से है। वहां की इस खुशी में पर्यावरण के अनुकूल विकास की नीतियों का अहम योगदान है।
सदन जी, पटना, बिहार।