पाला बदल
नवजोत सिंह सिद्धू ने राजनीति में आयाराम-गयाराम के मुहावरे को ही सिद्ध किया है।

पाला बदल
नवजोत सिंह सिद्धू ने राजनीति में आयाराम-गयाराम के मुहावरे को ही सिद्ध किया है। जब मन में आता है या जब कोई स्वार्थ टकराता है तो ये जरा-सी देर में दल बदलने में झिझकते नहीं। दल बदलना कोई गुनाह नहीं है, लेकिन अक्सर देखा जाता है कि नेतागण समाज की भलाई का बहाना बनाते हैं और अपना गणित लगा कर दल बदलते हैं। इससे जनता छली जाती है।
सिद्धू कल तक जिस कांग्रेस पर अपने मजाकिया लहजे में कटाक्ष करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, अब उसी पार्टी के गुण गाएंगे और उसी पार्टी के नेतृत्व की महिमा बखानेंगे। कल वे जिस पार्टी के कशीदे पढ़ा करते थे, वह अब उनके निशाने पर होगी। लेकिन यह सब आम लोगों को कितना भी विचित्र लगे, राजनीतिकों को इसमें कोई झेंप महसूस नहीं होती। राजनीति आदमी को किस सांचे में ढाल देती है!
’महेश नेनावा, तिलक नगर, इंदौर
विरोधाभासी अनुमान
एक तरफ वित्तमंत्री कहते हैं कि नोटबंदी से देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर परकोई असर नहीं पड़ेगा, और दूसरी तरफ रिजर्व बैंक और केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय का अनुमान है कि पिछले वित्तीय साल के मुकाबले 2016-17 में जीडीपी में कम से कम आधा फीसद की गिरावट आएगी। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का अनुमान तो इससे भी ज्यादा गिरावट आने का है। मसलन, अभी अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने कहा है कि मौजूदा वित्तवर्ष में भारत की जीडीपी दर कम से कम एक फीसद कम रहेगी। ऐसे सरकार क्यों अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे और आगे भी पड़ने वाले असर को नकार रही है। वह सच को क्यों स्वीकार करना नहीं चाहती?
’मनोहर वर्मा, दिलशाद गार्डन, दिल्ली
रिजर्व बैंक की साख
नोटबंदी की निर्णय प्रक्रिया को लेकर अब जो जानकारी बाहर आ रही है उससे रिजर्व बैंक की साख पर आंच आई है। रिजर्व बैंक की गिनती देश के स्वायत्त संस्थानों में होती है। लेकिन इस पूरे मामले में उसकी स्वायत्तता कहां रही? उसने वही किया जो उसे करने को कहा गया। रिजर्व बैंक के पूरे इतिहास में उसकी स्वायत्तता से ऐसा खिलवाड़ कभी नहीं हुआ। लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव नहीं होता, यह भी होता है कि उन संस्थाओं के अधिकार सुरक्षित रहें, जिन्हें कामकाज में पारदर्शी लाने, शासन को निरंकुश न होने देने, निर्णय प्रक्रिया को संतुलित व समावेशी बनाने के लिए बनाया गया है। लेकिन ऐसी तमाम संस्थाओं की स्वायत्तता का हनन हो रहा है। ऐसे में हमारे लोकतंत्र का क्या होगा? क्या वह सिर्फ चुनाव का निर्वाह करके रह जाएगा, या एक जीवंत लोकतंत्र बनेगा?
’रमेश विश्वकर्मा, गीता कॉलोनी, दिल्ली