चौपाल: मुश्किल में अर्थ
जब किसी अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट, उपभोग में कमी, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, बेरोजगारी का बढ़ना, कर्जों की मांग में कमी, शेयर बाजार में कमी, बाजार में तरलता में कमी जैसे संकेत देखने को मिलते हैं, तब यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है।

भारतीय अर्थव्यवस्था अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। पिछली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था का सकल घरेलू उत्पाद विकास 3.1 फीसद था जिसके अब इस तिमाही में 18.3 फीसद तक सिकुड़ने का अनुमान है। गौरतलब है कि पूर्णबंदी की वजह से कई उद्योगों पर बुरा असर पड़ा, जिस वजह से उत्पादन में गिरावट आई और जिसका बुरा असर रोजगार पर भी पड़ा है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल से अब तक दो करोड़ लोगो की नौकरीयां गई हैं और जुलाई महीने में ही पचास लाख वेतनभोगी लोगों की नौकरी गई है। इसका सीधा असर उपभोग पर पड़ रहा है। इसके अलावा, वितरण शृंखला टूटने की वजह से बाजार में वस्तुओं के दाम बढ़ गए। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी कहा है कि बाजार में मांग बढ़ने में वक्त लगेगा।
जब किसी अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट, उपभोग में कमी, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, बेरोजगारी का बढ़ना, कर्जों की मांग में कमी, शेयर बाजार में कमी, बाजार में तरलता में कमी जैसे संकेत देखने को मिलते हैं, तब यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है।
सरकार की तरफ से आधिकारिक तौर पर इससे निपटने के बेहतर इंतजामों का तो पता नहीं चला है, लेकिन ‘एक्ट आफ गॉड’ की परिभाषा इन दिनों चर्चा का विषय बन गई। क्या यह जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना नहीं है? यह केंद्र और राज्य सरकार की ही जिम्मेदारी है कि उन्होंने किन नीतियों को लागू किया जिसका नतीजा यह निकला।
कम से कम अब सरकार को आर्थिक मसले पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सटीक आर्थिक रणनीति की जरूरत है। इसके अतिरिक्त सहयोगी संघीय व्यवस्था में निहित मूल्यों का उपयोग करके केंद्र और राज्य को एक दूसरे पर भरोसा करना पड़ेगा, तब इस चुनौती से निपटने के लिए बल मिलेगा और आर्थिक मोर्चे पर मुसीबत झेल रहे आम लोगों को राहत मिलेगी।
’निशांत महेश त्रिपाठी, नागपुर, महाराष्ट्र