लक्षित हमले के साक्ष्य मांगने के पीछे उनकी मानसिकता यही दर्शा रही है कि उन्हें सेना की कारवाई पर भरोसा नहीं है। एक ओर जब राहुल गांधी कहते हैं कि सेना की कारवाई पर कोई प्रश्न नहीं है तो आखिर उनके दल के इतने कद्दावर नेता के वक्तव्य दल की विचारधारा से भिन्न क्यों है। सवाल यह है कि जब किसी दल के नेता के विचार अति संवेदनशील मामले में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में निजी माने जाएं जो उनके दल और देश की गरिमा सह संस्कृति के प्रतिकूल हों तो ऐसे नेताओं के विरुद्ध दल उनके गैरजिम्मेदार जहरीले बोल के लिए विरुद्ध कारवाई क्यों नहीं करते!
विचारणीय है कि ऐसा एक भी दृष्टांत अभी तक देश के सामने नहीं आ पाया है। ऐसे प्रतिकूल बयान से अब आमजन के मानस पटल पर संशय के बादल स्वाभाविक रूप से घनीभूत होने लगे हैं कि करीब-करीब हर राजनीतिक दल विरोध की कोई लक्ष्मण रेखा निर्धारित नहीं की है, बल्कि बेलगाम बोल वाले कुछ नेताओं को चिह्नित कर उन्हें गैरजिम्मेदार बोल बोलने के लिए अधिकृत कर रखा है।
जब विषय अधिक आलोचना के आंगन में अंगड़ाई लेने लगती है, तो दल विशेष बयानवीर के निजी विचार कहकर पल्ला झाड़ लिया करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही लोकतंत्र में सत्ता और प्रतिपक्ष के दलों में एक पारंपरिक सहमति रही है कि वैदेशिक और सुरक्षा नीतियों पर कोई विरोध नहीं रहेगा। लेकिन विडंबना है कि विगत कुछ वर्षों से इस सहमति को दलीय स्वार्थ में पूरी तरह खंडित किया जा रहा है।
ऐसा सभी दल करने लगे हैं। विरोधी देश इससे लाभ लेने में नहीं हिचकते और मौका मिलते ही प्रहार करने से बाज भी नहीं आते। राजनीतिक वैमनस्य की विडंबना में घनीभूत होते विरोधी आचरण लोकतंत्र की मर्यादा को तिरोहित कर रहे हैं, वह निश्चय ही देशहित में नहीं है। संविधान निर्माताओं द्वारा वर्तमान आचरण की कल्पना तक नहीं की गई होगी जो राजनीति की भावी पीढ़ी के लिए दरअसल चिंताजनक परिदृश्य का प्रतिबिंब दिखा रही है।
लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन सरकार या देश की मूलभूत सुरक्षा और विदेश नीतियों में बदलाव नहीं हुआ करता, क्योंकि देश के विरुद्ध जब भी किसी मंच से कोई विपरीत कृत्य किए जाते हैं तो पूरा देश एकजुट हो उसका प्रतिकार करता है। विगत आठ वर्षों में कांग्रेस ने अनेक कारणों से अपनी राजनीतिक भूमि खोई है, जबकि वर्तमान में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में जब कभी उन्हें यह आभास होता होगा कि वे दस कदम आगे बढ़े हैं तो कुछ जैसे नेताओं का बड़बोलापन पांच कदम पीछे लौटने की स्थिति ला देता है। जरूरी है कि राष्ट्रीय प्रतिरक्षा के मामलों में कोई भी समझौता न करते हुए सरकार एक बार अपने स्तर से सभी दलों के साथ मिल बैठ कर पूर्व सरकारों द्वारा गठित मतैक्य मंशा से सभी को अवगत करा दे।
अशोक कुमार, पटना, बिहार।
भ्रष्टाचार के स्रोत
भ्रष्टाचार, भारत के प्रशासनिक ढांचे के सफल संचालन में लंबे समय से भागीदार रहा है। यह बात फिल्मों और मीडिया द्वारा अधिक स्पष्ट हो जाती है।
भ्रष्टाचार कई कारणों से पनपता है और कई अजीबोगरीब परिणामों में परिणत हो सकता है। कुछ ऐसे कारण हैं जो शुरुआत में मजे की चीज लगती है, मगर परिणाम कहीं न कहीं भ्रष्टाचार तक चला जाता है।
कुछ मामलों पर नजर डालने से अंदाजा लग सकता है कि उनका आगे क्या होगा। मसलन, चालान के लिए पुलिस के रोके जाने पर किसी का पुलिस को पैसे दिखाकर नियम तोड़ने से बचने की आदत को बढ़ावा देते रहना, विश्वविद्यालय में शोध के लिए पैसा देकर शोध-पत्र लिखवा लेना, कार्यालय के कीमती सामान को चोरी-छिपे चुराकर बेच देना, स्कूल के कमरे से स्पीकर या कैमरे निकालकर बस्ते में डाल लेना या महंगे स्मार्टफोन चुराकर उनकी सस्ती काला-बाजारी करते रहना आदि।
दूसरे अर्थों में कई जगहों पर कामचोरी करना या व्यर्थ के छोटे-मोटे झूठ बोलने या सांठगांठ करने की आदत पाल लेना भी भविष्य में भ्रष्टाचार की जमीन तैयार कर देता है। लगभग अधिकांश सभी विकासशील देश भ्रष्टाचार से रोगग्रस्त हैं। कई देशों में भ्रष्टाचार रोकने के नवाचारी उपायों पर विमर्श और क्रियान्वयन चल रह है। आशा है भारत भी शैक्षिक-नैतिक जागृति, प्रशासनिक पारदर्शिता और नवाचार के सशक्त उपयोग द्वारा इस ओर सफल कार्यवाही का उदाहरण बने।
अत्यंत कुमार, इलाहाबाद विवि।
असुरक्षित बेटियां
दिल्ली में निर्भया से दरिंदगी, नए साल पर एक युवती को कार से घसीटना, दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष के साथ छेड़छाड़ और न जाने कितनी ऐसी घटनाएं आम रही हैं। देश की राजधानी दिल्ली की यह हालत है तो गांव और छोटे इलाकों के बारे में सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है, जहां मनचले घर में घुसकर भी छेड़खानी करते हैं और कभी पकड़े नहीं जाते। कभी पकड़ में आते हैं तो पंचायत स्तर पर ही मामलों को दबा दिया जाता है।
ऐसे में बेटियों को इस असुरक्षित माहौल में कैसे पढ़ाया जाए? आखिर वे अपने सपनों को कैसे साकार करें? कोई भी परिवार उन्हें असुरक्षित माहौल में नहीं छोड़ सकता। लड़कियों और महिलाओं के प्रति दरिंदगी और हैवानियत की दिल दहला देने वाली घटनाएं हर दिन सामने आती रहती हैं। मगर न तो पुलिस उस हद तक सतर्क और मुस्तैद हुई है और न ही कानून उन्हें रोक पाता है।
अनेक संस्थाएं अलग-अलग स्तर पर काम जरूर कर रही हैं, मगर उनका असर जमीनी स्तर पर घटनाओं को कम करने में कुछ हद तक ही कामयाब हुई हैं। इसलिए महिलाओं को सुरक्षित वातावरण देना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। पुलिस की सतर्कता और गश्त भी बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि ऐसे अपराधों को देश भर में खत्म किया जा सके।
स्वर्णिम सक्सेना, लखनऊ।