जीवन में कुछ ऐसे अवसर भी आते हैं जब हमारी सक्रियता किसी समस्या के समाधान में सहायक हो सकती है। खेद की बात है कि हम अक्सर ऐसे मौकों पर अपने आप को एक तथाकथित सुरक्षित आवरण में छिपा लेते हैं या फिर ताली बजाकर यह मान लेते हैं कि हमने अपना फर्ज निभा लिया है। यही हमारी भूल है और इसी कमजोरी की वजह से कई ऐसी बातें सामने आती हैं जो अन्यथा नहीं घटती।
एक बार भगवान बुद्ध ने एक व्यक्ति के हाथ में तिनका देकर कहा, ‘तुम इसे तोड़ दो!’ उस व्यक्ति ने बिना कुछ सोचे-विचारे तपाक से उस तिनके को तोड़ दिया। तब भगवान बुद्ध मुस्कुराते हुए बोले, ‘अब तुम इस तिनके के इन दोनों टुकड़ों को जोड़ दो।’ वह व्यक्ति खिन्न स्वर में बोला, ‘प्रभु, जो तोड़ दिया गया हो, उसे फिर से जोड़ पाना मेरे हाथ में नहीं।’ बुद्ध ने हंसते हुए कहा, ‘याद रखो, बिना सोचे-विचारे कुछ भी मत तोड़ो, क्योंकि उसे फिर से जोड़ पाना आपके वश में नहीं रहता।’
हिंदी विज्ञान पत्रिकाओं पर भी यही नियम लागू होता है। व्यक्ति तो आते-जाते रहते हैं। उन्हें निर्माण के लिए जाना जाता है, न कि विध्वंस के लिए! कोई भी ऐसी पत्रिका बंद न हो जो विज्ञान के प्रचार-प्रसार में मददगार हो, क्योंकि हमारी आज की दुनिया जहां तक पहुंच सकी है, वह विज्ञान की चेतना के बूते ही संभव हो सका है। अगर अंधविश्वासों ने बाधाएं नहीं खड़ी होतीं तो आज यह दुनिया मौजूदा समय से आगे होती।
- सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली</strong>