नदियों का आर्तनाद
मानवीय आचरण ने आज प्रकृति के समस्त स्वरूपों को भौतिक व्यामोह में जकड़न का जो कुत्सित अभियान चला रखा है, उससे पूरी पृथ्वी आज प्रकंपित है।

घटनाओं के तल हमें बता रहे हैं कि इससे पूरी प्राकृतिक संपदाएं आज रूठी नजर आती हैं। जिस वैज्ञानिक बाहुबल से मानव मन विकास के गगन में उड़ने की अदम्य इच्छा में लीन है, प्रकृति मौन मन से इस विकास की यात्रा को अस्वीकार कर कभी-कभी गंभीर चेतावनी भी दे रही है और विनाश की पटकथा भी रच रही है।
प्रकृति की प्रतिकूलताओं से उपजी विभीषिकाओं में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, वैश्विक ऊष्मा, ज्वालामुखी, ग्लेशियर-गलन ने समय-समय पर अनहोनी कृत्यों से जन-मानस को असीमित क्षति दी है, वहीं नदियों के जल स्रोत में निरंतर हो रहे क्षरण एक ज्वलंत समस्या के रूप में दिख रही है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का शोध पत्र साक्षी है कि विगत बारह से सोलह वर्षों में देश की करीब चार हजार से अधिक नदियां सूख चुकी हैं।
इसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न कोने में पेयजल की गंभीर समस्या उत्पन्न हो चुकी है और भूतल का स्तर बहुत ही तेजी से नीचे जा रहा है।
एशियाई विकास बैंक के आंकड़े के मुताबिक 2030 तक देश में जलापूर्ति में पचास प्रतिशत की कमी की संभावना है। निश्चय ही इस वर्तमान और भावी संकट से सिंचाई के साधन भी बुरी तरह प्रभावित होंगे।
नीति आयोग ने भी इस संकट गणना में अपनी सहमति प्रदान करते हुए चालीस प्रतिशत नागरिकों को पेयजल के लिए संघर्षरत रहने की भविष्यवाणी की है। नदी और जल विशेषज्ञों ने मुख्य कारण जो अंकित किया है, वह भयावह है। इसके मुख्य कारणों में गंगा आदि उत्तर भारत की अधिकतर नदियों के स्रोत वे ग्लेशियर हैं जो हिमालय में अवस्थित हैं और ये ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिम के तेजी से पिघलने से निरंतर सिकुड़ते जा रहे हैं।
नदियों के जल के कम होने का दूसरा कारण है अत्यधिक प्रदूषण, जिसमें नगरों का मल, जल और कारखानों से निकला अपशिष्ट शामिल है। भारत सरकार के ‘नमामि गंगे’ योजना से कुछ सुधार हुआ है, लेकिन करीब 2500 किलोमीटर लंबी गंगा अभी तक पूरी तरह निर्मलता की आस में व्यग्र है। वर्षा जल के संचयन की योजना कुछ राज्यों में प्रभावी है, लेकिन अन्य राज्यों में इस जल संग्रहण से घटते जल स्रोत पर राहत मिल सकती है।
दरअसल, अपना देश भूजल का सबसे बड़ा ग्राहक है, क्योंकि यहां की अधिकतर जनसंख्या भूजल पर ही आश्रित है। बढ़ते शहरीकरण के कारण भूमि पर कंक्रीट की वृहद सरंचनाओं के महाजाल हो जाने से वर्षा जल द्वारा भूजल स्रोतों को फिर से खड़ा करने पर बड़े स्तर पर दुष्प्रभाव पड़ा है। नतीजतन, भूजल स्तर का क्षरण होता गया।
गौरतलब है कि संसार की सभी शुरुआती सभ्यताओं ने नदी के तटों पर ही जन्म लिया और समृद्ध नगरों की स्थापना भी हुई। आॅक्सीजन के बाद मानव रक्षा का प्रमुख आधार जल ही है।कहा भी गया है जल ही जीवन है, जिसके संचयन की जितनी भी व्यावहारिक खोज और योजना सरकार और अन्य स्रोतों से प्रस्तुत की गई हैं, उसे कार्यान्वित करने से ही जलापूर्ति की सभ्यता को बचाई जा सकती है। यह संकट बेहद चिंताजनक है, जिससे उबरने से ही भावी संतति की रक्षा संभव है।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार
धोखे की दवा
पहली बार जब बाबा रामदेव ने कोरोना की दवा के रूप अपने एक उत्पाद को उतारा था, तब भी उसकी आलोचना हुई थी। लेकिन फिर दो केंद्रीय मंत्रियों की उपस्थिति में उसी दवा को प्रचारित किया। इस बार इन सबने मिल कर विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपने साथ लपेटते हुए कहा कि डब्ल्यूएचओ की ओर से दुनिया के एक सौ चौवन देशों में इस दवा को भेजने की मान्यता प्रदान कर दी गई है।
इसके बाद इस संगठन ने ऐसी किसी मान्यता से खुद को अलग कर लिया। आखिर बार-बार, झूठ का सहारा लेकर इसे क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है? इस व्यापार में संवैधानिक पद पर बैठे लोग भी उनका साथ क्यों दे रहे हैं? यह देश के लिए बेहद चिंता की बात है।
’जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर, झारखंड