हैवानियत के विरुद्ध
आए दिन बच्चियों से बलात्कार और उनकी हत्या की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं। जहां ये वारदातें होती हैं वहां बंद, धरना-प्रदर्शन, मशाल जुलूस आदि आयोजित किए जाते हैं। यदि लोगों की ऐसी प्रतिक्रियाओं से हैवानियत भरे अपराधों की रोकथाम में मदद मिले तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन 16 दिसंबर 2012 की दिल्ली […]
आए दिन बच्चियों से बलात्कार और उनकी हत्या की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं। जहां ये वारदातें होती हैं वहां बंद, धरना-प्रदर्शन, मशाल जुलूस आदि आयोजित किए जाते हैं। यदि लोगों की ऐसी प्रतिक्रियाओं से हैवानियत भरे अपराधों की रोकथाम में मदद मिले तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन 16 दिसंबर 2012 की दिल्ली की वारदात के विरोध में हुई अभूतपूर्व और जबरदस्त प्रतिक्रिया से, जिसकी गूंज दिल, दिल्ली, देश और दुनिया तक में सुनी गई, क्या दुष्कर्म के अपराध कम हुए? अगर नहीं हुए तो क्यों न हम कुछ और करें।
समाज अपने बच्चों को जो परोस रहा है उसका नतीजा भी उसी के अनुरूप मिल रहा है। बच्चों की परवरिश किस परिवेश में हो रही है और इंटरनेट, टीवी, सिनेमा, मोबाइल, पत्रिकाएं और अखबार में छपने वाली ‘मसालेदार’ सामग्री से बच्चों और युवाओं को क्या ‘इनपुट’ मिल रहे हैं। अखबार का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूं कि वे भी क्या परोक्ष में ऐसे अपराधों में मददगार नहीं हैं? यहां सरकार और अभिभावक भी कठघरे में खड़े होते हैं जो ‘बुरी’ सामग्री को सेंसर करने में विफल हैं और अपने बच्चों पर निगरानी रखने की जरूरत नहीं समझते। अगर अभिभावक बच्चों को पर्याप्त वक्त दें और गांव-गांव में अच्छी किताबों/ खेल सामग्री से युक्त शिक्षण केंद्र हों तो दिमाग सकारात्मक चीजों की ओर लगेगा।
प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में माता-पिता से अपेक्षा की थी कि वे अपनी लड़कियों से जितने सवाल करते हैं, लड़कों से भी करें कि वह कहां आता-जाता है, किनके साथ बातें करता है, क्या बातें करता है तो यौन हिंसा के अपराध कम होंगे। अच्छा सुझाव है। साथ ही, क्योंकि मासूम बच्चियों के साथ ऐसी घटनाएं आए दिन घट रही हैं इसलिए अभिभावकों को घर-परिवार, पड़ोस, बाजार, शादी-विवाह आदि समारोहों के दौरान बच्चों की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। डीजे के तेज शोर में मासूम बच्चियों की चीख-पुकार सुनी जा सके, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। क्यों न दो-चार स्वयंसेवी युवा ऐसे समारोहों के दौरान बच्चों की देखरेख करें और संदिग्धों पर नजर रखें।
जैसा कि आतंकवादी गतिविधियों के मामले में सलाह दी जाती है, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और यौन अपराधों के संबंध में भी समाज को सतर्क रहना चाहिए और इनकी रोकथाम और अपराधियों की धरपकड़ में यथासंभव सहयोग करना चाहिए। विडंबना यह है कि वारदात होने पर धरना, हड़ताल, जलूस, तोड़फोड़ जैसी गतिविधियों में शामिल होने के लिए हमारे पास महीने की फुर्सत है। ऐसे ही सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री, पुलिस और प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों तक के लंबे बयान और प्रतिबद्धता के झूठे वायदे तब होते हैं जब घटना घट चुकी होती है। मेरा सोचना है कि समाज और सरकार इसका एक अंशमात्र समय भी अगर पहले खर्च कर सके तो ऐसी घटना घटें ही नहीं।
’कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा
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