एमएसपी से 85 फीसदी किसानों को नहीं सरोकार, पंजाब, हरियाणा, यूपी वाले लेते हैं सबसे ज्यादा फायदा
मधुरेंद्र सिन्हा बता रहे हैं कि क्यों बड़ा होते जाने के बावजूद किसान आंदोलन के प्रति देश के अन्य भागों में संवेदनशीलता का अभाव है।

मधुरेन्द्र सिन्हा। पंजाब से शुरू हुआ किसानों का आंदोलन अब बड़ा होने लगा है और हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भी मौका देखकर इसमें शामिल होने लगे हैं। लेकिन इसके बावजूद देश के अन्य भागों में इसके प्रति संवेदनशीलता का अभाव है।
उनकी इसमें कोई रुचि नहीं है और इसका सबसे बड़ा कारण है कि इस देश के लगभग 85 प्रतिशत किसानों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कि गेंहूं या चावल खरीदी की सरकारी दर यानी एमएसपी क्या है क्योंकि वे अपना अनाज सरकार नहीं बल्कि साहूकार को बेचते हैं। ज़ाहिर है कि सरकारी धन का बड़ा हिस्सा पंजाब, हरिय़ाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को जाता है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा के निर्धन किसानों को मुश्किल से एक या दो प्रतिशत धन ही मिल पाता है।
उनके लिए खेती महज परिवार का पेट भरने का साधन है। यह बात आंकड़ों से भी साबित होती है। एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2018-19 में सिर्फ 12 प्रतिशत चावल उत्पादक किसानों को सरकारी खरीदी का लाभ उठाने का मौका मिला। इसका मतलब हुआ कि देश के कुल 8 करोड़ चावल उपजाने वाले किसानों में से महज 97 लाख को ही सरकारी स्कीम को फायदा हुआ।
पंजाब के 95 प्रतिशत धान उत्पादकों और हरियाणा के 70 प्रतिशत किसानों ने सरकारी पैसे का मजा लूटा जबकि सबसे बड़े चावल उत्पादकों में से एक बंगाल के 7.3 प्रतिशत, बिहार के 1.7 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश के 3.6 प्रतिशत चावल उत्पादकों को ही सरकारी खरीदी का फायदा मिला। शेष ने या तो चावल खुद इस्तेमाल किया फिर साहूकारों को बेच दिया।
ऐसे आंकड़े कमोबेश सभी राज्यों के हैं और यही कारण है कि इस आंदोलन के प्रति देश के अन्य राज्यों के किसानों में कोई दिलचस्पी नहीं है और उन्हें भड़काने के विरोधी दलों के तमाम प्रयास खोखले साबित हो रहे हैं। पंजाब और हरियाणा के किसानों को देश की राजधानी दिल्ली के करीब रहने का सबसे ज्यादा लाभ मिला।
उसके अलावा बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल वगैरह में ज़मीन के टुकड़े-टुकड़े होते चल गए और वहां खेती घाटे का सौदा बनकर रह गई जबकि पंजाब में धनी किसानों ने इससे लाभ कमाना शुरू कर दिया और वह खेत खरीदते चले गए। इससे उनकी बारगेनिंग पॉवर भी बढ़ी और केन्द्रीय सरकार की खरीदी का लाभ भी मिला।
कृषि लागत और कीमत आयोग ने 2020-21 की अपनी रिपोर्ट में इंगित किया है कि बिहार, यूपी, बंगाल, उड़ीसा और पूर्वोत्तर में किसानों को एमएसपी का कोई लाभ नहीं मिलता है और वे काफी कम कीमतों में अपनी फसल बेच देते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात है कि कुल धान का लगभग 28 प्रतिशत बंगाल और उत्तर प्रदेश में होता है और उन्हें केन्द्र सरकार की धान खरीदी का बहुत कम फायदा मिलता है।
उधर पंजाब से पिछले साल 1 करोड़ 14 लाख टन तथा हरियाणा से 38 लाख टन धान की खरीदी हुई। इससे वहां के किसानों को बहुत सहारा मिला क्योंकि एमएसपी हर साल बढ़ती जा रही है। लेकिन यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि खासकर पंजाब में किसानों की उपज आढ़तिये ही खरीदते हैं और आगे एफसीआई को बेचते हैं जिसमें उन्हें मोटी कमाई होती है।
कई ऐग्रो कंपनियां इस तरह से बिचौलिया बनकर करोड़ों रुपए की कमाई कर रही है। अब नए कानून से उन्हें बड़ा खतरा पैदा हो गया है और उनके अस्तित्व पर संकट आता दिख रहा है। किसानों के इस आंदोलन के पीछे उनका बड़ा हाथ है। यहां पर खास तौर से बिहार की स्थिति का जिक्र करना जरूरी हो जाता है जो खेती के मामले में बिहार देश का चौथा राज्य है और सब्जियां उगाने के मामले में पहले नंबर पर है।
यहां हर साल औसतन पचास लाख टन चावल तथा 45 लाख टन गेहूं होता है जबकि यह मकई उपजाने के मामले में देश में तीसरे नंबर पर है। राज्य की 80 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है। लेकिन यहां गरीबी का आलम है और उसका सीधा कारण है अनाजों की सरकारी खरीदी न होना। किसी समय राज्य का अपना फूड कॉर्पोरेशन होता था लेकिन वक्त के साथ वह बंद हो गया।
यहां के किसानों के पास खेतों का रकबा कम है और इसलिए जो कुछ भी अनाज होता है उसका ज्यादातर हिस्सा वे साहूकारों के पास बेचने को अभिशप्त हैं। इतना ही नहीं इलाके के दबंग उनसे औने-पौने दामों में अनाज खरीद लेते हैं जिससे उनकी आय नहीं बढ़ पाती। इसके अलावा एफसीआई की टीमें राज्य के हर कोने में नहीं जा पाती हैं।
ऐसे में राज्य की अपनी खरीदी व्यवस्था होनी चाहिए जो नहीं है। यहां पर बिहार का जिक्र इसलिए किया जा रहा है क्योंकि पंजाब की लगभग तीन चौथाई खेती बिहारी मजदूरों पर ही निर्भर करती है और वे ही कृषि की रीढ़ ही होते हैं। बड़े किसान बिहारी मजदूरों से ही मेहनत के काम करवाते हैं और धन कमाते हैं।
जो लोग पंजाब के किसानों के पक्ष में लंबी-चौड़ी बातें कर रहे हैं उन्हें बिहारी खेतिहर मजदूरों को भी उस कमाई में हिस्सा दिलाने की बात करनी चाहिए। यह उन कुलक किसानों की मेहनत से ही नहीं बिहारी मज़दूरों के पसीने बहाने से ही होता है। यहां पर एक और बड़ा सवाल है कि क्या फसलों की खरीदी का काम सिर्फ केन्द्र सरकार का है या कोई और भी इसमें भाग लेगा?
ध्यान देने वाली बात यह है कि भारतीय संविधान के अनुसार कृषि राज्यों का विषय है और उसे ही इस सिलसिले में कदम उठाने हैं। लेकिन केन्द्र ने किसानों के लिए न केवल कई कानून बनाए बल्कि नियत कीमतों पर फसल खरीदी की व्यवस्था भी की है। और यहीं से एक सवाल उठता है कि आखिर राज्य सरकारें खुद फसल क्यों नहीं खरीदती?
अगर सारी राज्य सरकारें खुद फसलों की खरीद करना शुरू करें तो किसानों की बहुत बड़ी समस्या दूर हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है और बहुत कम राज्य ही ऐसा कर पा रहे हैं। वे अपने उत्तरदायित्व में विफल रहे हैं। जिन राज्यों ने किसानों से बड़े पैमाने पर फसलों की खरीदी की उनमें आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलांगना हैं।
आदिवासी बाहुल्य छोटे से राज्य छत्तीसगढ़ ने तो पिछले साल साढ़े 57 प्रतिशत धान की खरीद कर ली थी जिससे किसानों को काफी राहत मिली। इस साल उसने समर्थन मूल्य पर सवा छह लाख मीट्रिक टन धान की खरीदी कर ली है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है और यह किसानों को खेती की तरफ उत्साहित कर रहा है।
वहां एक बड़ी बात यह भी दिख रही है कि खेती का रकबा बढ़ा है और नए किसानों की तादाद बढ़ी है। तेलांगना और आन्ध्र प्रदेश ने भी अपनी खरीदी की अच्छी व्यवस्था कर रखी है। वैसे तो हरियाणा सरकार ने भी दावा किया है कि उसने किसानों से धान की बड़े पैमाने पर खरीदी की है। इस तरह के कदमों से ही किसानों की समस्या का समाधान होगा।
केन्द्र सरकार की ओर मुंह उठाकर देखते रहने से राज्य के किसानों को मदद नहीं मिल पाएगी। छत्तीसगढ़, आन्ध्र, तेलांगाना जैसे राज्यों के उदाहरण हमारे पास हैं और इनसे सबक लेने की जरूरत है। समय आ गया है कि कुछ ऐसे कदमों के बारे में सोचा जाए जिससे छोटे और सीमांत किसानों का भला हो।
बड़े किसान दबाव की राजनीति करके और राजनीतिक दलों को साथ लेकर हमेशा कुछ न कुछ पा लेते हैं लेकिन छोटे किसान कुछ खर नहीं पा रहे हैं। उनकी जिंदगी बदहाल है और खेती महज दो वक्त की रोटी का साधन है। मोटे किसान मोटा काट रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
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