डॉ. वीर सिंह
जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं– प्राणवायु, जल, भोजन, और आश्रय – हमें सब प्रकृति से मिलती हैं। और तो और, हम स्वयं प्रकृति के अभिन्न अंग हैं। प्रकृति पहले, हम बाद में। प्रकृति हमारे बिना चंगी है, लेकिन उसके बिना हमारा अस्तित्त्व ही संभव नहीं। सूर्य की ऊर्जा से सृजित और संचालित हमारा एक मात्र ग्रह इस ब्रह्माण्ड में सबसे अद्भुत है। जीवन को चिरकाल तक संवारने और अक्षुण्ण रखने की अद्भुत क्षमताएं हैं पृथ्वी में।
लेकिन दुनिया की मानव प्रजाति की आवश्यकताएं, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से बहुत बड़ी हो गई हैं और उन आवश्यकताओं को पैदा करने की पृथ्वी की क्षमताओं से बहुत आगे निकल गई हैं, और वह भी इतना आगे कि उनकी आपूर्ति के लिए हमारा यह जिन्दा ग्रह छोटा पड़ गया है।
दुनिया के समाजों की आवश्यकताओं के घेरे बढ़ाने वाली प्रणालियों को कहते हैं आर्थिक प्रणालियाँ। मनुष्य आज अपनी जीवन-सीमाओं के घेरे तोड़कर एक आर्थिक प्राणी बन गया है। उसके अर्थशास्त्र की भूख इतनी विराट है कि उसके लिए अब एक पृथ्वी छोटी पड़ गई है। निरंतर आर्थिक वृद्धि उसकी निरंतर बढ़ती आवश्यकताओं का आधार है और उपभोक्तावाद उसका मूल मंत्र।
आर्थिक विकास में निरंतर अभिवृद्धि करने के लिए, प्राकृतिक संसाधनों का निष्कर्षण प्राथमिक शर्त है। जिस अनुपात में आर्थिक वृद्धि होती है, उसी अनुपात में पृथ्वी की क्षमताएं निर्बल पड़ती हैं। वैश्विक संसाधन निष्कर्षण दरों में पिछले कुछ वर्षों में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क के अनुसार, आर्थिक विकास प्रतिस्पर्धा ने दुनिया को एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहां उसे नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों की अपनी वर्तमान मांगों को पूरा करने के लिए लिए 1.7 पृथ्वियों की आवश्यकता होगी।
हमारी आर्थिक प्रणालियाँ प्रकृति की इस लूट की न केवल अनदेखी करती हैं, वरन उन्हें प्रोत्साहित भी करती हैं। पिछले 50 वर्षों में स्तनपायी, पक्षी, मत्स्य, सरिसर्प, और उभयचर जंतुओं की आबादी में लगभग 70 प्रतिशत की गिरावट आई है। वर्तमान में प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा 1000 से 10,000 गुना बढ़ गया है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि प्रजातियों के विलुप्तीकरण की यही दर जारी रही तो वर्ष 2100 तक धरती की लगभग आधी प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी।
अर्थशास्त्र का एक मूक सिद्धांत यह है कि प्रकृति को नष्ट करना उसका संरक्षण करने से अधिक लाभदायक है। सकल घरेलू उत्पाद जैसे मानदंड वास्तविक आर्थिक प्रगति का आंकलन करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। यह आर्थिक मानदंड वास्तव में अर्थशास्त्र के दोषपूर्ण उपयोग पर आधारित है, जैसा कि कैंब्रिज विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर पार्थ दासगुप्ता भी मानते हैं।
वास्तव में सम्पोषित आर्थिक विकास का तात्पर्य यह पहचानना है हमारी दीर्घकालिक समृद्धि प्राकृतिक संसाधनों और सेवाओं की हमारी मांग को पुनर्संतुलित करने पर निर्भर करती है। सकल घरेलू उत्पाद उत्पादन का आंकलन करता है लेकिन प्रकृति प्रदत्त सेवाओं के लिए यह कोई जमा पूंजी नहीं है।
औद्योगिक विकास द्वारा उत्पादित पूंजी को सकारात्मक रूप से मापा जाता है, लेकिन इस प्रक्रिया में कार्बन को अवशोषित करने, पानी और हवा को शुद्ध करने, परागकणों के लिए आवास प्रदान करने, मिट्टी के कटाव को रोकने आदि की गणना को गौण कर दिया जाता है और मानव स्वास्थ्य से लेकर जल और खाद्य आपूर्ति तक प्रत्येक वस्तु की लागत पर ध्यान दिए बिना प्राकृतिक प्रणालिओं को तहस-नहस किया जाता है।
प्राकृतिक शोषण पर आधारित इस आर्थिक प्रतिमान के कारण दुनियाभर की सरकारें उन गतिविधियों को घूस देती हैं जिनके कारण एक वर्ष में कम से कम 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक प्रकृति को हानि पहुँचती है।
कैंब्रिज विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1992 और 2014 के बीच प्रति व्यक्ति पूँजी का उत्पादन दोगुना हो गया, लेकिन प्रति व्यक्ति “प्राकृतिक पूँजी” भंडार में लगभग 40 प्रतिशत की गिरावट आई। यह अर्थशास्त्र दीर्घकालिक मानव कल्याण को तो खतरे में डालता ही है, प्राकृतिक असंतुलन को चरम पर पहुंचाकर रेगिस्तानीकरण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के क्षरण को भी त्वरित करता है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि जैव विविधता के लोप और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों के साथ अगर हम प्राकृतिक परिवेशों को अबाध गति से विनष्ट करना जारी रखते हैं तो हमें आगे चलकर और भी विकट महामारी का सामना करना पड़ेगा, क्यों की कोविड-19 जैसे रोग जंतुओं से फैलने वाले, अर्थात जूनोटिक, हैं। जैसे ही हम प्राकृतिक परिवेशों में अतिक्रमण करते हैं रोगजनित जंगली जानवरों से रोग हमारे अंदर प्रवेश कर जाते हैं।
कैंब्रिज की रिपोर्ट में तीन क्षेत्रों की रूपरेखा तैयार की गई है जहाँ ठोस परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक कार्यवाही की जानी चाहिए। सर्वप्रथम हमें अपनी मांगों को न्यूनतम करना चाहिए ताकि प्रकृति की अपनी पुरुत्पादन क्षमताएं बनी रहें। इसका तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक परिवेशों का रक्षण कर उनकी उत्पादन क्षमताओं में बढ़ोत्तरी की जाए और और मांस भक्षण को अत्यधिक कम किया जाए।
दूसरा क्षेत्र है आर्थिक प्रगति को मापने के वैकल्पिक तरीके। केट रावर्थ द्वारा विकसित “डोनेट अर्थशास्त्र” और भूटान द्वारा प्रचारित ” सकल राष्ट्रीय प्रफुल्लता” (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) जैसे सूचकांकों पर विचार किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय लेखांकन में प्राकृतिक पूँजी भी सम्मिलित होनी चाहिए और उसके साथ मानव स्वास्थ्य, ज्ञान, कौशल और समुदाय को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए।
परिवर्तन के लिए तीसरा क्षेत्र है आवश्यक परिवर्तनों को सक्षम बनाए रखने के लिए वित्त और शिक्षा जैसे संस्थानों और प्रणालियों को बदलना। इसका तात्पर्य यह सुनिश्चित करना है कि धन का प्रवाह प्रकृति की अभिवृद्धि के लिए है न कि उसको विनष्ट करने के लिए। इसका तात्पर्य यह भी है कि प्रकृति-पर्यावरण सम्बन्धी अध्ययनों को सभी स्तरों पर शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
अर्थशास्त्री पार्थ प्रोफेसर दासगुप्ता लिखते हैं: “अगर हम अपने साझा भविष्य और अपने वंशजों के साझा भविष्य का चिंतन करते हैं, तो हम सभी को आंशिक रूप से प्रकृतिवादी होना चाहिए।” उनका परामर्श है कि वांछित परिवर्तनों को और भी प्रभावी बनाने के लिए प्रांतीय संस्थानों की स्थापना की जाए ताकि बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण एवं विस्तार सुनिश्चित किया जा सके।
प्रकृति की खुली लूट मचाने और सामाजिक संस्थाओं एवं लोगो को भ्रष्टाचार की ओर प्रेरित करने वाली आर्थिक प्रणालियों ने सहस्त्राब्दियों से संरक्षित प्राकृतिक संसाधनों को चंद दशकों में ही उजाड़ कर रख दिया है और जलवायु को उसके विनशकारी मोड़ पर ला खड़ा किया है तथा एक जीवित ग्रह का कद ही बौना कर दिया है।
अगर हम इस त्रुटियों से भरी प्रणाली को पोषित करते रहेंगे तो हम अपने अस्तित्त्व को ही चुनौती दे रहे होंगे। हमने अब तक विनाशकारी परिवर्तन ही किए हैं, अब समय सकारात्मक और संरक्षण-केंद्रित परिवर्तन का है, जो संभव ही नहीं हमारे अस्तित्त्व, हमारी सम्पोषित प्रगति, हमारी अस्मिता और हमारे आशाओं और प्रफुल्लता भरे जीवन के लिए अनिवार्य भी है।