Blog: होली के बाद होली पर विचार… ‘खाये गोरी का यार बलम तरसे..’ का सच
होली के पहले के कुछ दिनों से यत्र-तत्र-सर्वत्र बजते रहे ‘हिट’ गीतों को याद कीजिये। ‘सिलसिला’ फिल्म का गाना ‘..खाये गोरी का यार बालम तरसे, रंग बरसे...’ तो मानो होली का ‘नेशनल एंथम’ ही बन गया है।

श्रीनिवास
मर्दों की बेलगाम लम्पटता को खुली छूट का ‘पर्व’ होली के ‘खुशनुमा’ माहौल में आपके रंग में भंग नहीं करना चाहता था, पर होली के बारे में अपने इन भिन्न और नकारात्मक विचारों को शेयर भी करना चाहता था। अतः होली बीत जाने पर खुद को नहीं रोक पा रहा। बचपन से होली को इंज्वाय करता रहा हूँ। कुछ हद तक आज भी करता हूँ। मगर बीते अनेक सालों से इस नतीजे पर पहुँचता जा रहा हूं कि हम होली की सकारात्मक बातों (कि होली में सबकी निजी पहचान मिट जाती है, कि सभी अपने सारे गिले-शिकवे भुला कर, सारे मतभेदों-मनभेदों को परे रख कर एक दूसरे से गले मिलते हैं, कि इस दिन कोई बड़ा या छोटा नहीं, कोई अमीर या गरीब नहीं रहता आदि) पर इतने मुग्ध रहते हैं कि इसके नकारात्मक पक्ष पर या तो हमारी नजर नहीं पड़ती या हम जानते हुए भी उसकी चर्चा से बचते हैं।
मैं मानता हूँ कि त्यौहार आदमी की उत्सव-प्रियता का ही प्रकटीकरण है कि जीवंत समाज ऐसे पर्वों-त्योहारों से नई ऊर्जा ग्रहण करता है। पत्रकार हर त्यौहार के पहले मंगाई का रोना रोकर बताना चाहते हैं कि इस बार दीवाली या होली फीकी रहेगी मगर खुश रहना सिर्फ माली हालत पर निर्भर नहीं करता। लोग खुश होने के बहाने ढूंढ ही लेते हैं और कोई संदेह नहीं कि होली उत्तर भारत में सामूहिक ख़ुशी और उमंग का सबसे शानदार मौका और बहाना है। चूंकि इसकी अच्छाइयों (आम आदमी का त्यौहार, धार्मिक कर्मकांड नहीं के बराबर, और इसके एक वास्तविक अर्थों में पूरे समाज का उत्सव बन्ने की पूरी सम्भावना) को मैं भी स्वीकार करता हूं, इसलिए यहाँ उनकी चर्चा गैरजरूरी है। और कहना चाहता हूँ कि काश होली के पक्ष में किये जानेवाले सकारात्मक दावे पूरी तरह सच होते। काश कि जातियों, वर्गों और लैंगिक दृष्टि से गैरबराबरी में बंटा हमारा समाज कम से एक दिन समानता में जी पाता। सबसे पहले तो यह लगभग मर्दवादी या मर्दों का त्यौहार है। मर्दों की बेलगाम लम्पटता को खुली छूट का ‘पर्व’ है।
होली के पहले के कुछ दिनों से यत्र-तत्र-सर्वत्र बजते रहे ‘हिट’ गीतों को याद कीजिये। ‘सिलसिला’ फिल्म का गाना ‘..खाये गोरी का यार बालम तरसे, रंग बरसे…’ तो मानो होली का ‘नेशनल एंथम’ ही बन गया है। इस गाने को सुनते हुए और झूमते हुए हमारे मन में क्या भाव आता है? हम (पुरुष) खुद को उस ‘गोरी’ का यार मान लेते हैं (बेशक अपवाद भी होंगे), जिसका बेचारा बलम तरसता है। कभी खुद को उस बलम की जगह रख कर देखिये; या अपनी पत्नी या प्रेमिका में उस गोरी को। सिनेमा में और टीवी सीरियलों की रंगीन होली को भूल जाइये। वहां तो स्त्री-पुरुष की बराबरी दिखती है। पौराणिक या पुरानी फिल्मों में तो शालीन होली ही नजर आती थी। मगर आज की फिल्मों में यदि होली का सीन हुआ, तब कुछ फूहड़ ही सही, स्त्री भी जम कर मस्ती लेती है। क्या हम अपने घर और मोहल्ले में वैसी होली की कल्पना भी कर सकते हैं? जरा होली के दिन के अपने आसपास के माहौल को याद कीजिये। कितनी लडकियां या महिलाएं सड़कों पर नजर आती हैं? अपने मोहल्ले में वे भले ही झुण्ड में घूम लें, पर मजाल है कि शहर की मुख्य सड़कों पर या बाजार में निकल जाएँ। कुछ ने यह दुस्साहस कर भी दिया, तो उन्हें क्या और किस हद तक भुगतना पड़ सकता है, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। और उस दुर्गति और अपमान के लिए भी उन्हें ही जवाबदेह ठहराया जायेगा।
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‘किसने कहा था कि होली के दिन सड़क पर निकलो!’ जरा होली के मौके पर गाये जाने वाले और बजने वाले गीतों को याद कर लें। सारी कथित मर्यादा और महान संस्कृति की धज्जी उडाते और स्त्री-पुरुष के बीच के नैसर्गिक संबंधों को फूहड़ ढंग से उजागर करते ये गीत क्या मर्दों के अन्दर छिपी गलीज और मूलतः स्त्री विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन नहीं हैं? ‘..भर फागुन बुढऊ देवर लगिहैं..’ यह कथन लगता तो किसी स्त्री का है, लेकिन दरअसल यह मर्दों का ऐलान है, जो अपने लिए तो सारी छूट चाहता है, पर उसमें स्त्री की इच्छा के प्रति कोई सम्मान नहीं है। महिला या अविवाहित युवती के लिए तो बस देवर या जीजा के साथ कुछ ठिठोली या थोडा बहुत स्पर्श-सुख लेने भर की छूट है; मगर मर्द किसी उम्र का हो, खुद को हर युवती या किशोरी का भी देवर बन कर ‘कुछ भी’ कर गुजरने का अधिकार (या कम से कम चाह) रखता है! कोई शक नहीं कि यह पूरी प्रकृति के झूमने का मौसम है, जब पेड़ पौधों के साथ ही समस्त जीव जगत सृजन की कामना और उत्तेजना-उमंग से लबरेज होता है।
होली इस उल्लास और यौवन-आवेग के छलक पड़ने का प्रतीक पर्व है। तभी तो इसे वसंतोत्सव भी कहते हैं, मदनोत्सव भी. कुछ लोग तो इसे ‘वेलेंटाइन डे’ का भारतीय रूप या विकल्प भी कह देते हैं. काश कि यह सच होता। बेशक स्त्री-पुरुष या नर और मादा बीच का यह सर्वव्यापी सहज औए दुर्निवार आकर्षण तो प्रकृति का नियोजन है। यह लालसा तो प्राकृतिक ही है। इसमें उम्र कोई मायने नहीं रखती. चचा ग़ालिब कह भी गये हैं : ‘…रहने दो सागरो-मीना मेरे आगे; गर हाथों में नहीं जुम्बिश, आँखों में तो दम है!’ (पंक्ति में कुछ इधर-उधर हो गया हो तो मरहूम शायर और उनके शागिर्द माफ़ करेंगे) लेकिन यह लालसा एकतरफा तो नहीं हो सकती. क्यों नहीं मस्ती के इस मैसम में किसी युवती को भी चाहत होगी कि वह भी किसी के संग मस्ती करे, कि कोई उसके संग भी… कि वह सचमुच हर पुरुष को देवर या जीजा या यौन साथी की नजर से देखे, वह भी उसके निकट आये और उसके तन के पोर पोर को मादक स्पर्श से भिंगो दे?
हम आप जानते हैं कि इस मामले में परिवार और परंपरा के तमाम निषेधों की धज्जियाँ तो उतरती ही हैं। मगर हम इस कल्पना से भी कांप उठेंगे कि मेरे घर की कोई महिला या लड़की भी ‘फागुन’ की मस्ती में उस ‘लक्ष्मण रेखा’ को लाँघने का प्रयास कर सकती है; या कर भी चुकी है। और यदि ऐसा कुछ मालूम हो जाये, तो संभव है, परिवार की ‘इज्जत’ बचाने के नामपर हम चुप लगा जाएँ, मगर ‘भर फागुन..’ वाले गीत का नशा तो उतर ही जायेगा। नहीं? विपरीत लिंग के प्रति यह आकर्षण प्राकृतिक है, पर यह एकतरफा कैसे हो सकता है। मगर लिंग-योनी की पूजा करनेवाला यह देश, ‘कामसूत्र’ के रचयिता के यह देश, मंदिरों में उत्कीर्ण मिथुन मूर्तियों का यह देश, ‘काम’ को जीवन का आवश्यक कर्म माननेवाला यह देश, ‘नगरबधू’ का चयन करनेवाला यह देश, मंदिरों तक में ‘देवदासी’ की नियुक्ति करनेवाला यह देश, जिस देश-समाज का सबसे शक्तिशाली देवता अपने और अतिथियों की ‘सेवा’ के लिए और संभावित प्रतिस्पर्धी का तप भंग करने के लिए अपने दरबार में चिर कुवारी यौवनाओं को बहाल करता था, कालांतर में स्त्री विरोधी होता गया, काम या सेक्स मानो वर्जित शब्द ही हो गया।
स्त्री-पुरुष संबंधों पर धर्म, नैतिकता और परंपरा के नाम पर तरह तरह का अवरोध लगा दिए गये। नतीजतन हम एक पाखंड में जीने लगे, एक पाखंडी समाज बन गये। स्त्री ‘भोग’ की ‘वस्तु’ बन गयी। हम एक नारा लगाते रहे हैं- ‘औरत भी जिन्दा इंसान, नहीं भोग की वह सामान.’ मुझे इसमें कुछ अटपटा लगता रहा है। मैं मानता हूँ की स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के भोग के सामन हैं। इसमें कुछ गलत नहीं है। मगर हमने सिर्फ स्त्री को भोग का सामान बना दिया। सच तो यह है की इस तरह स्त्री की यौनिकता को कुंद भी कर दिया। अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी यौन आकांक्षा प्रकट भी न करे, न ही उसमें मिलनेवाले आनंद का इजहार करे। निश्चय ही अब हालात बदल रहे हैं और अधिकाधिक युवतियां अपनी ‘इच्छा’ खुल कर व्यक्त करने लगी हैं, सेक्स में प्लेसर का डिमांड करने लगी है। तभी तो भारतीय पुरुषों की ‘नामर्दी’ या नपुंसकता भी उजागर होने लगी है; और उसके इलाज के इश्तेहार से अख़बारों के पन्ने भरे रहने लगे हैं।
जाहिर है, यह कोई होली का दोष नहीं है। यह समाज के स्त्री विरोधी चरित्र का ही नतीजा है। बीते दिनों एक होली मिलन समारोह में शामिल होने का मौका मिला। सभी धर्मों और जातियों-वर्णों के लोग सहजता से गले मिले। अच्छा लगा। यह इस देश की साझा संस्कृति का एक जीवंत उदाहरण था। लेकिन समारोह में एक भी महिला नहीं! सिवाय एकाध स्थानीय सफाईकर्मी महिला के. किसी को कहा भी नहीं गया था कि अपनी पत्नी के साथ आयें! बात सिर्फ इसके स्त्री विरोधी स्वरूप की नहीं है। यह दावा भी पूरी तरह सही नहीं है कि इस दिन समाज का हर तबका उंच-नीच का भेद मिटा कर एक हो जाता है। शहरों में तो फिर भी गनीमत है, मगर जिन गांवों में असली भारत बसता है और आज भी कथित ऊंची और नीची जातियों में बंटा है, अपवादों को छोड़ कर हर जाति और समुदाय होली में भी अलग थलग ही रहते हैं। और होली का यह नकारात्मक पक्ष भी असल में हमारे समाज का सदियों पुराना दोष है।
फिर भी होली में गैरबराबरी के भी एक होने की संभावना तो है ही। उम्मीद करें की एक दिन हम सही में अपने तन के साथ मन को भी एक रंग में रंगने में कामयाब होंगे। और तब होली सचमुच समरसता का शानदार पर्व बनेगा। जो भो हो, इतनी नकारात्मकता के बावजूद होली एक रंगीन लोक त्यौहार है; आम आदमी का त्यौहार है। चूँकि होली में धार्मिक कर्मकांड नहीं के बराबर होता है, इसलिए यह धार्मिक के बजाय लोक त्यौहार ज्यादा लगता है। मुझे इसकी यही विशेषता अधिक आकर्षित करती रही है। मगर इसके स्त्री विरोधी स्वरुप की अनदेखी भी नहीं कर पाता। आशा है, सुधि जन इसे ‘बुरा ना मनो…’ की स्पिरिट में लेंगे।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार है। यह विचार उनके निजी हैं।