कैंब्रिज विश्वविद्यालय में राहुल गांधी के भारतीय लोकतंत्र पर दिए बयान ने देश के उच्च तापीय राजनीतिक माहौल को और ज्वलंत कर दिया है। बजट सत्र के दूसरे चरण का पहला हफ्ता राहुल गांधी से माफी मंगवाने पर जिस तरह से हंगामे की भेंट चढ़ गया उसे देख कर राहुल गांधी पर यही कहने के लिए बेबाक बोल कि तुम बोलोगे तो बोलेंगे कि बोलता है…।
सूरज में लगे धब्बा
फितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफिर,
अल्लाह की मर्जी है
हंगामा है क्यों बरपा…
-अकबर इलाहाबादी
राहुल गांधी ने लंदन के एक विश्वविद्यालय में बयान दिया। वहां वे ऐसा भाषण न देते तो अच्छा रहता। लेकिन, विदेश में दिए उनके बयान पर देश में जो हंगामा बरपा है, उसे देख कर सवाल तो उठ ही रहा है कि राहुल गांधी का ऐसा करना न भूतो न भविष्यति जैसा अभूतपूर्व है क्या? क्या ऐसा पहली बार हुआ है? और, आज की वैश्विक दुनिया में क्या इस बात से फर्क पड़ता है कि आपने देश में बोला कि विदेश में बोला? राहुल गांधी केरल के वायनाड में जो बोलते हैं, वह भी चंद मिनटों में पूरी दुनिया में फैल जाता है, तो फिर इस बात से आपत्ति क्यों कि इस बार जो कहा गया उसकी जगह लंदन थी।
खत्म हो रही पक्ष और विपक्ष के बीच तार्किकता
राहुल गांधी के भाषण पर हंगामा बरपते ही इंटरनेट की इस दुनिया में पलटवार जारी है कि इसके पहले कौन-कौन, कहां-कहां बोल चुका है। इनमें अरुंधति राय, मणिशंकर अय्यर तो आते ही हैं, साथ ही इनके बगलगीर होते हैं लालकृष्ण आडवाणी जो अपने कद्दावर समय में जिन्ना की मजार पर पहुंचे थे। दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से राजनीति में ऐसा समय आ गया है जहां पक्ष और विपक्ष के बीच तार्किकता के लिए कोई जगह नहीं बची है। एक को दूसरे के प्रति बस येन-केन प्रकारेण हमलावर होना है।
राहुल से माफी मंगवाने की जिद में दूसरे चरण का पहला हफ्ता बर्बाद
लंबे समय से संसद में हंगामे के लिए विपक्ष पर वार होता रहा है। सदन-स्थगन के तुरंत बाद आंकड़ों का सैलाब आता है कि संसद की एक दिन की कार्रवाई में कितना खर्च होता है और जनता के पैसों का कितना नुकसान होता है। विपक्ष मरें तो क्या करें की सूरत में इस गुनाह को कबूल करता है। साथ ही, बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, विपक्ष होकर सत्ता से सवाल करता हूं के माफीनामे के साथ जनता का पैसा हंगामे में बहा ही देता है। इस बार राहुल से माफी मंगवाने की जिद में बजट सत्र के दूसरे चरण का पहला हफ्ता पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ गया।
2014 के चुनावी परिणाम को कांग्रेस के अहंकार का राजनीतिक न्याय माना गया। भारत जैसे लोकतंत्र में मतदान का एक खास रुझान होता है। जनता का परिवर्तनकारी वोट ‘अ’ को जिताने के लिए नहीं बल्कि ‘ब’ को हराने के लिए होता है। हालांकि, जनता जिताने के लिए भी जुटती है, जैसे इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के लिए जुटी थी। लेकिन, आम तौर पर उसका परिवतर्नकारी तूफान उसे हराने के लिए होता है जो खुद को जीत का पर्याय मान लेता है। विकल्प की सूरत न तो किसी कागज पर खींच कर रखी होती है और न ही उसकी कहीं मूर्ति बनी होती है। जनता के विध्वंस का मन ही नव राजनीतिक सृजन होता है।
जिस सत्ता का जन्म राजनीतिक न्याय के खिताब से हो, तो उसके कंधों पर नैतिकता का बोझ भी आता है। लेकिन, लगता है कि सत्ता ने न्याय का हथौड़ा अपने हाथ में रख राजनीतिक नैतिकता उन कथित कमजोर राहुल गांधी के लिए छोड़ दी है जो भारतीय राजनीति में अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
सुधार की बात करने वालों के साथ बिगाड़ की भाषा
आज के युग में आपके हर शब्द वैश्विक होते हैं। ऐसा नहीं है कि आप जब विदेश की धरती पर बोलेंगे तभी आपसे जवाब-तलब होगा कि आप हमारे लोकतंत्र की छवि क्यों खराब कर रहे हैं। सत्ता पक्ष के नेताओं ने तो देश में रह कर ही दिल्ली सीमा पर आंदोलनकारी किसानों को आतंकवादी कह दिया था। उनके देश में दिए बयान पर दुनिया सवाल करने लगी कि लोकतंत्र का क्या हाल बना रखा है, कुछ करते क्यों नहीं? लोकतंत्र का लब्बोलुआब यही है कि उसकी सुधार की बात करने वालों के साथ बिगाड़ की भाषा न शुरू कर दी जाए।
लोकतंत्र का रंग उतना ही नाजुक होता है जितना सफेद, कि कभी भी अलोकतंत्र के आरोप का दाग लग सकता है। इसकी कुछ बुनियादी परिभाषाओं का रंग उतना ही कठोर होता है जैसा कि काला जिसके ऊपर आपकी बनाई किसी सुविधाजनक तुरंता परिभाषा का रंग कतई नहीं चढ़ेगा।
राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के साथ सत्ता पर हमलावर हो चुके थे। उसके बाद संसद के सत्र में भी उन्होंने अपना कड़ा रुख जारी रखा। राहुल के आरोप और सरकार के जवाब को लोकतंत्र की दैनंदिनी की तरह ही देखा गया। वह विपक्ष ही क्या जो सरकार पर आरोप न लगाए, और वह पक्ष ही क्या जो आरोपों की स्वीकारोक्ति कर ले। लेकिन इस अगर-मगर के साथ चलना तो लोकतंत्र की डगर पर ही है। लोकतंत्र को लेकर दोनों की जिम्मेदारी बराबर है।

अगर, भाजपा ने राहुल गांधी के बयान पर संसद में इतना हंगामा नहीं किया होता तो देश की आम जनता को शायद ही इसके बारे में पता चलता। शायद वह भाषण कैंब्रिज विश्वविद्यालय के बाद कांग्रेस समर्थकों के बीच घूम कर अपनी ऊर्जा खत्म कर चुका होता। लेकिन, सत्ता पक्ष के उग्र रवैए ने राहुल गांधी को भारत में बोलने के लिए और अवसर दे दिया। अब वे उसी बात पर देश में अपना पक्ष रख रहे हैं, तो जाहिर है कि अब उनके तर्क देशद्रोह और संसदीय गरिमा के हनन की श्रेणी में नहीं आएंगे।
सबसे अहम बात यह है कि राहुल ने बोला किनके बीच में? वे विदेश की किसी चुनावी सभा में किसी खास दल के समर्थन में नहीं बोल रहे थे। अकादमिक बहसें किसी एक देश के राष्ट्रवाद और अन्य परिभाषाओं से परे होती हैं। वहां चुनावी मतदाता नहीं अकादमिक बैठे होते हैं जो भाषण पर तालियां बजाने नहीं बल्कि सवाल उठाने में रुचि रखते हैं।
लोकतंत्र एक आधुनिक और अपार विस्तार के भाव वाला शब्द है। जब सत्ता पक्ष के नेता विदेश में होते हैं तो उन्हें देश की जमीन की तुलना में बहुत ज्यादा नम्र होना पड़ता है, अपनी उदार छवि गढ़नी होती है। विदेश के किसी विश्वविद्यालय में हुई आलोचना पर अगर आप संसद नहीं चलने देंगे तो आप पर सवाल उठेंगे। राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं इसलिए वहां पर उनकी तल्खी को जायज माना जा सकता है, लेकिन आपकी तल्खी कहीं कैंब्रिज में एक और सेमिनार न करवा दे क्योंकि अभिव्यक्ति पर सख्ती होते ही लोकतंत्र की सेहत की पूरी जांच-परख शुरू हो जाती है।
2019 में दूसरी बार सत्ता पाने के बाद मोदी सरकार ने अपनी विदेश नीति पर ध्यान दिया और उदार चेहरे का वैश्विक विस्तार किया। खास कर दुनिया में गिरते बाजार, घटते रोजगार और आपदाओं के दौर में भाजपा सरकार-द्वितीय ने लोकतांत्रिक देशों की प्रथम पंक्ति में अपनी जगह बनाई। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया का जो भारत के प्रति नजरिया बदला है वह एक बड़ी उपलब्धि है। भारत जिस तरह युद्ध के खिलाफ डटा रहा उसका हासिल है जी-20 के भागीदार विदेशी नेताओं के द्वारा भारत में आकर भारतीय विदेश-नीति की तारीफ करना। वैश्विक पटल पर इस बड़े लक्ष्य के हासिल के बाद राहुल गांधी की आलोचना के खिलाफ माफी मंगवाने की जिद न ही उठती तो अच्छा होता।
और, रही बात राहुल गांधी की तो 2024 की परीक्षा के लिए उनके पास समय बहुत कम है। अभी तो देश के अंदर का ही पाठ्यक्रम इतना बड़ा है कि परीक्षा की तारीख आते-आते पता नहीं वे उत्तीर्णांक लाने लायक उसे पूरा कर पाएंगे या नहीं? लेकिन, भारत के लोकतंत्र के विपक्षी नेता के तौर पर उनकी भी पूरी जिम्मेदारी बनती है। राहुल गांधी उन यूरोपीय और अमेरिकी देशों के सामने क्यों गिड़गड़ा रहे हैं कि लोकतंत्र बचाओ विदेशी भाई, भारत दुर्दशा न देखी जाई…। फिलहाल तो इस मुश्किल दौर में लोकतंत्र को लेकर उनका ही प्रदर्शन बहुत खराब है। अभी कोरोना से लेकर रूस-यूक्रेन युद्ध में कथित विकसित देशों का अविकसित लोकतांत्रिक और तानाशाही भरा रवैया सामने आया ही था।
आजादी के बाद के अभी तक के महज 75 साल के समय को देखें तो भारत लोकतंत्र के रूप में जवान हो चुका है। यहां की जनता ने लोकतंत्र का जिस धैर्य से साथ दिया है, नेताओं को उसकी कद्र करनी होगी। राहुल आज जिस जनता के कारण विपक्ष में हैं पक्ष की वापसी के लिए भी उसी जनता के पास जाना होगा। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने आपको जो मोहब्बत दी है अभी उसी नक्शे-कदम पर चलिए। अकादमिकों की बहस अकादमिकों के लिए छोड़ दीजिए, आप बस व्यावहारिक ज्ञान पर ध्यान दीजिए जो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का हासिल है। भारत का लोकतंत्र यानी जनता कांग्रेस को भी समझती है और भाजपा को भी। दोनों को लेकर जनता की जो नजर है उससे आप नजरिया फेर कर कहां जाएंगे? लोकतंत्र की सत्ता में खुद को खुदा सझने की भ्रांतियों के खिलाफ जनता की क्रांतियों का इतिहास पढ़ें, दोनों पक्षों को मदद मिलेगी।