राजकाज-बेबाक बोल: कीलकर्म
एक बात तो साफ है कि यह आंदोलन एक-दो जगह और किसी खास कौम या जाति का मामला नहीं रह गया है। यह पूरे भारत का लंबे समय से खेती और किसानी के संकट से उपजा हुआ गुस्सा है जो बढ़ता जा रहा है।

दिल्ली में अण्णा हजारे ने आंदोलन शुरू किया था जो देखते ही देखते पूरे देश में फैल गया। इस आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल की दिल्ली पुलिस के साथ अहिंसक मुठभेड़ की दुनिया दीवानी हुई थी। पिलास लेकर बिजली के तार जोड़ने वाले केजरीवाल को कौन भूल सकता है। लेकिन आज उसी आंदोलन से निकली सरकार के शासन क्षेत्र में दिल्ली पुलिस आंदोलनकारियों के लिए गड्ढे खोद रही है और राहों में कील ठोक रही है। महिला आंदोलनकारियों के शौचालयों के आगे अवरोधक तक लगा दिए हैं। आने वाले समय में सरकार और किसान वार्ता बहाली के लिए संवाद के मंच पर लौट सकते हैं इसकी सबको उम्मीद है। लेकिन पुलिस ने सरकार और प्रदर्शनकारियों के बीच कील ठोक कर असंतोष की खाई और चौड़ी कर दी है। आज पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश जनांदोलनों से जूझ रहे हैं। ऐसे दौर में किसान आंदोलन बनाम दिल्ली पुलिस के मध्यकालीन रवैये पर बात रखता बेबाक बोल।
सन 1761 का समय था। विदेशी आक्रांताओं के खिलाफ मराठा शासक पूरे जोश के साथ लड़ रहे थे। हिंदुस्तान के जंग-ए-मैदान के संसाधनों पर दुश्मनों का कब्जा था। उनकी मदद के लिए आ रही रसद और नकद को वह लूट लेता था। मराठा पक्ष की महिलाओं और बच्चों की स्थिति दयनीय थी, उन तक जीने के संसाधन नहीं पहुंचते तो वे युद्ध में कैसे टिकते…।
टिकते के बाद तीन बिंदुओं का इस्तेमाल सोशल मीडिया की किसी कड़ी का हिस्सा बनने के लिए नहीं, 17वीं सदी से इक्कीसवीं सदी में छलांग लगाने के लिए किया गया है। राष्ट्रीय राजधानी से सटे यूपी गाजीपुर की सीमा पर पुलिस और प्रशासन की तरफ से बिजली और पानी की सुविधा काट दी गई। प्रदर्शन में हजारों महिला प्रदर्शनकारी भी हैं तो उन्हें किस तरह की दिक्कत हो रही होगी इसका अंदाजा हम अपने घर बैठे भी लगा सकते हैं। बहुत से लोग अपने परिवार के साथ हैं और उनके छोटे बच्चे भी हैं। आखिर कोई अपने बच्चों के साथ प्रदर्शन में क्यों आएगा? क्योंकि उसे भरोसा है कि राज्य उसके साथ इतनी क्रूरता से पेश नहीं आएगा।
लेकिन इक्कीसवीं सदी की पुलिस ने मध्ययुगीन साम्राज्यवादी शासकों की तरह अपने हक के लिए लड़ रहे लोगों तक बुनियादी जरूरत से जुड़ी चीजों की पहुंच तक रोक दी। जबकि ये किसान प्रदर्शनकारी राज्य के खिलाफ कोई युद्ध नहीं कर रहे हैं। वे एक अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं जिसके खिलाफ कोई कदम उठाने से सुप्रीम कोर्ट ने भी मना कर दिया। अभी तक किसान मोर्चे का आंदोलन संवैधानिक दायरे में ही है। लेकिन इस आंदोलन को खत्म करने के लिए दिल्ली पुलिस ने जिस तरह के कदम उठाए उन पर सवाल भी संविधान की किताब के जरिए ही उठ जाएंगे।
हम इस स्तंभ में मध्ययुगीन शासकों का उदाहरण नहीं देते अगर दिल्ली पुलिस के कुछ चेहरों ने मध्ययुगीन काल जैसे दिखते हथियारों के साथ खुशी-खुशी फोटो नहीं खिंचवाई होती। पुलिस की यह टुकड़ी इन खास हथियारों के साथ साम्राज्यवादी आक्रांताओं की ही सिपाही लग रही थी जो किसानों को अपने शक्ति प्रदर्शन का दुश्मन मान रही थी। इस तस्वीर पर विवाद होते ही पुलिस मुख्यालय की तरफ से बयान आता है कि पुलिस को इस तरह के हथियार रखने की इजाजत नहीं है। अब सवाल यह है कि संवैधानिक दायरे में चल रहे प्रदर्शन के दौरान दिल्ली पुलिस के जवानों ने असंवैधानिक हथियारों का प्रदर्शन भला किस मानसिकता के तहत किया? इस चूक का जिम्मेदार कौन होगा?
दिल्ली पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों की सुविधाएं काटने, दिल्ली की सीमा पर कील ठोकने और अंतरराष्ट्रीय सीमा की तरह पक्की दीवार और कंटीले तारों से बाड़बंदी कर देने की खबर को अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी प्रमुखता से लिया। प्रदर्शन की जगह पर इंटरनेट बंदी और अन्य सुविधाएं रोकने की खबर छपते ही अंतरराष्ट्रीय हस्तियों ने भारत में किसानों के प्रदर्शन पर सवाल पूछे। इन लोगों को न तो कोई सपना आया था और न ही उन्होंने कोई फर्जी खबरों का सहारा लिया था। उन्होंने अपनी बात अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की उन खबरों के आधार पर कही जिसमें प्रदर्शनकारियों के मानवाधिकार हनन की बात थी। अगर भारतीयों के सोशल मीडिया खाते में अमेरिका में ज्यादती के खिलाफ ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर’ के ट्वीट मौजूद हैं तो फिर वहां के लोग हम पर ट्वीट क्यों नहीं कर सकते। हम एक वैश्विक युग में जी रहे हैं, इस सच को कोई नकार नहीं सकता।
किसानों का प्रदर्शन एक ऐतिहासिक जनांदोलन का रूप ले चुका है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार तीन कृषि कानूनों को खास समय के लिए स्थगित करने की पेशकश कर चुकी है। जाहिर है कि सरकार को आंदोलन की व्यापकता का अंदाजा है। यह दूसरी बात है कि किसान, कानून वापसी के अलावा किसी बात पर फिलहाल राजी होने के लिए तैयार नहीं हैं। कानून वापसी से पहले घर वापसी नहीं, जनआंदोलन का सामूहिक फैसला है।
ऐसे में जब सरकार को भरोसेमंद संवाद की भाषा की तरफ आगे बढ़ना था तो उसकी संस्थाओं ने इन दोनों के बीच एक बड़ा विभाजक खड़ा कर दिया। दिल्ली पुलिस ने संवाद के रास्ते में सिर्फ खाई चौड़ी नहीं की है बल्कि अदूरदर्शिता का गहरा गड्ढा खोद दिया है। गड्ढा, कील और तार तो दरअसल एक संदेश है। संदेश है बातचीत के सारे रास्ते बंद कर देने का। संदेश है फसल बोने वालों की राह में लोहे के कांटे बोने का।
अगर कोई बड़ा जनांदोलन खड़ा होता है तो इसका मतलब है कि किसी मुद्दे पर सामूहिक असंतोष है। सवाल यही है कि इस सामूहिक असंतोष को जनतंत्र में किस तरह परिभाषित किया जाएगा, उसके साथ किस तरह से संवाद किया जाएगा। लेकिन दिल्ली पुलिस के गड्ढों, कीलों और तारबंदी ने इस असंतोष को खारिज करने की कोशिश की है। इससे असंतोष की खाई और भी गहरी हो गई है। यह आंदोलन कल क्या रूप लेगा यह तो देखने की बात होगी, लेकिन दिल्ली पुलिस ने जन भावनाओं पर कील ठोक कर आने वाले वक्त में अपने लिए एक काला अध्याय तो लिख ही दिया है।
भरोसा बहाली के रास्ते बंद करने के अलावा यहां एक प्रशासनिक सवाल भी खड़ा होता है। वह सवाल है इन कवायद के खर्चे को लेकर। हरियाणा से लेकर दिल्ली तक जो सड़कें खोदी गईं, इसके लिए इजाजत किसने दी है? क्या यह सड़क पुलिस अपनी मर्जी से खोद रही है? पुलिस के पास कील ठोकने, बाड़बंदी करने का बजट और इजाजत का स्रोत क्या है? इजाजत देने वाले वही लोग हैं जो जनता के वोट से चुन कर आए हैं। सड़क भी जनता के पैसों से ही बनी है।
आंदोलन को इस तरह कुचलने की कोशिश पर दिल्ली सरकार के अगुआ आंदोलनकारियों के साथ दिखने की रस्मअदायगी भर क्यों कर रहे हैं जो खुद एक आंदोलन की उपज हैं। जिन केजरीवाल ने अपने आंदोलन के समय दिल्ली पुलिस को करीब से जाना और समझा है उनसे तो एक सशक्त हस्तक्षेप की उम्मीद की जा सकती थी। क्या हम इस आंदोलन के दमन में उनकी नम्र मिलीभगत के बारे में कंटीले सवाल उठा सकते हैं? इसके पहले हरियाणा सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर गड्ढा खोद दिया था। एक तरफ तो जनता की चुनी हुई सरकारें ऐसा कर रही हैं और दूसरी तरफ शासन का सबसे अहम नियामक अंग जनता के पैसों से बने संसाधनों को बर्बाद कर रहा है, जो हमारे लिए चिंता की बात होनी ही चाहिए।
कुल मिलाकर दिल्ली पुलिस की इस मध्ययुगीन मानसिकता की कवायद ने असंतोष को गहरा दिया है। अब यह असंतोष अनंत की ओर जाता दिखाई दे रहा है। क्या प्रदर्शनकारियों का कोई मानवाधिकार नहीं है? आप महिलाओं को शौचालय तक जाने से रोकने के लिए अवरोधक लगा देंगे और चाहेंगे कि देश से लेकर विदेश तक आपके इस कदम पर कोई सवाल नहीं उठाए। प्रदर्शनकारियों का पानी और बिजली छीनने के बाद सड़क को भी बंद कर दिया गया है। सड़कों के इस तरह बंद होने से आम जनता भी परेशान है। देखा जाए तो इसके पहले सड़क बंद नहीं थी और दिल्ली को जाम नहीं किया गया था। आम लोगों को आने-जाने का रास्ता दिया गया था। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि पुलिस ने सड़क इसलिए बंद कर दी है ताकि आम जनता के दिल में उनके आंदोलन के प्रति रोष पैदा हो।
एक बात तो साफ है कि यह आंदोलन एक-दो जगह और किसी खास कौम या जाति का मामला नहीं रह गया है। यह पूरे भारत का लंबे समय से खेती और किसानी के संकट से उपजा हुआ गुस्सा है जो बढ़ता जा रहा है। दिल्ली पुलिस और शासन, संवाद के बीच नुकीले अवरोधक पैदा कर जिस मध्ययुगीन राह पर चल पड़े हैं वह आज स्वीकार्य नहीं होगा। दोनों पक्षों को संवाद बहाली की ओर लौटना ही होगा, लेकिन तब तक हम दुनिया को अपना गड्ढातंत्र नहीं दिखाएं यही बेहतर होगा।
दिल्ली पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव ने शहर की सीमाओं पर सुरक्षा बढ़ाने के कदमों का बचाव करते हुए कहा था कि पुलिस बल ने अवरोधकों को इसलिए मजबूत किया है ताकि फिर से उन्हें तोड़ा ना जाए। श्रीवास्तव ने संवाददाताओं से कहा कि ‘मुझे ताज्जुब है कि जब 26 जनवरी को पुलिसकर्मियों पर हमला करने और अवरोधक तोड़ने के लिए ट्रैक्टरों का इस्तेमाल किया तब उस वक्त किसी ने सवाल नहीं उठाया। हमने यहां अभी क्या किया है? हमने बस अवरोधकों को मजबूत किया है ताकि वे इसे फिर से नहीं तोड़ पाएं।’