चार दशक से ज्यादा लंबे समय का आपराधिक इतिहास रखने वाले अतीक अहमद को सजा मिलना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक सुखद पल था। जनता राजू पाल और उमेश पाल को याद करते हुए इंसाफ के इतने लंबे इंतजार के लिए रोषमंद होने के साथ आगे के लिए सांस्थानिक ढांचों को मजबूत करने के लिए होशमंद होती। लेकिन, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का सबसे दृश्यगत हिस्सा टीवी चैनलों ने इसे अपराधी के महिमामंडन का अश्लील दर्शन बना दिया। इतनी लंबी चली न्याय प्रक्रिया, अभियोजन पक्ष के संघर्षों पर बात करने के बजाए अपराधी के एक जेल से दूसरे जेल तक के सफर को दिखाने में व्यस्त रहा। चैनल उस वक्त भी अपने कैमरे पर शर्म का पर्दा नहीं लगा सके, जब अतीक अहमद लघुशंका के लिए गया। यह कोई पहला मामला नहीं है जब चैनलों ने जनतांत्रिक शर्म को टीआरपी की हवा में उड़ा कर मुनाफे का परचम बना दिया हो। खल को नायक की छवि देने वाली इस प्रवृत्ति पर बेबाक बोल।
खलनायक नहीं नायक है तू…
गीततकार आनंद बख्शी से माफी के साथ पाठकों से इसे वैसे ही झेलने की गुजारिश करूंगा जैसे कि सजा सुनते ही आंखों से आंसू निकलने से लेकर कहीं और से तरलधारा निकलते तक का जीवंत प्रसारण देखा। अतीक अहमद शायद इस बात से भी डर गया हो कि सरकार स्वच्छता मिशन का बंटाधार करने के लिए कोई और धारा नहीं जुड़वा दे।
समाचार प्रस्तोता जब अतीक अहमद के इस सार्वजनिक निपटारे को उत्तर प्रदेश सरकार से उसका डर करार दे, तब क्या कहा जाए। रूपर्ट मर्डोक सितारा मार्का चैनलों के साथ उपग्रही प्रसारण की दुनिया में आए थे तो यह महज संयोग नहीं था कि सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले चैनल व सास-बहू, भूत-प्रेत वाले धारावाहिक साथ ही आए थे। इस ढांचे का सारा मुनाफा इसकी दृश्यता पर टिका था। जो दिखेगा वह बिकेगा। अगर दर्शक पसंद कर रहे हैं तो सास मां परपोते की संतान होने के बाद भी सोलह साल की दिखेगी। और, अगर दर्शक कम हो जाते हैं तो चैनल यह नैतिकता भी नहीं बरतते कि जो कहानी शुरू हुई है, उसे खत्म किया जाए, बस डिब्बाबंद कर दिया जाता है।
भरपूर मनोरंजन वाली समानता के बावजूद समाचार चैनलों का अपना महत्त्व हैं
भरपूर मनोरंजन वाली समानता के बावजूद समाचार चैनल जनसंचार के क्षेत्र में अपना महत्त्व रखते हैं। मीडिया का माध्यम हो जाना वह परिवर्तन है जो इस इक्कीसवीं सदी को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगा। किसी के पास रोगों की कितनी भी जानकारी हो, वह कितना भी अच्छा इलाज कर सकता हो, लेकिन उसके पास किसी देश के कानून के हिसाब से डाक्टरी की डिग्री नहीं है तो वह झोलाछाप ही कहलाएगा और वह किसी तरह का आधिकारिक इलाज नहीं कर सकता। अब अगर हम समाचार चैनलों की तुलना इससे करें तो कहा जा सकता है कि वे पत्रकारिता की वैधता का लाइसेंस लिए ऐसे धारावाहिक बन गए हैं जो अपनी तरह से जनसंचार का काम कर रहे हैं। हम टीवी धारावाहिकों की तरह उन्हें मैं नहीं देखता/देखती या नहीं पसंद हो तो रिमोट आपके हाथ में है कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकते। यह नारा देना भी कि फलां भाषा का अखबार मत पढ़िए या फलां खबर के चैनल देखना बंद कर दीजिए, देश और समाज की जिम्मेदारियों से भागना होगा।

इस देश का भूगोल और जनसंख्या जितनी बड़ी है राजनीति और उसके तंत्र उतने ही संकुचित। चलिए, हम और आप में बहुतों को ऐेसी जगह पढ़ने-लिखने की सुविधा मिली कि हम छन्नी कर सकते हैं कि यह खबर नहीं है, यह तो हर तरह की आचार संहिता का उल्लंघन है। लेकिन, दिल्ली से निकलने वाला अखबार राष्ट्रीय अखबार होता है और नोएडा से चलने वाले चैनल राष्ट्रीय चैनल होते हैं। इनकी क्षमता कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पहुंचने की होती है। और, अगर आप मान रहे हैं कि दिल्ली-नोएडा से चलने वाले हिंदी भाषी समाज चैनलों की अहिंदी भाषी राज्यों में कोई पूछ नहीं है तो यह गलतफहमी है। हिंदी सिनेमा, समोसा, डोसा, मैगी, मोमो और गोलगप्पे की तरह अगर कुछ अखिल भारतीय है तो वे हैं दिल्ली और इसके सटे इलाकों से चलने वाले राष्ट्रीय चैनल। दृश्यता तो सारे भाषाई बंधनों से परे होती ही है।
जनता तुरंत न्याय चाहती है, चैनल लोगों में आकर्षण पैदा करते हैं
चाहे तेलंगाना में बलात्कार के अभियुक्तों की मुठभेड़ में मौत हो, उत्तर प्रदेश में विकास दुबे का मामला या ताजा अतीक अहमद के सजायाफ्ता होने के जीवंत प्रसारण की घटना। किस तरह चैनल जनता के लिए इसमें आकर्षण पैदा करते हैं? पहला आकर्षण तुरंता न्याय का होता है। चैनलों को देख कर यही समझ बनती है कि जनता आपराधिक मामलों पर लंबे समय चलती सुनवाई से खीझी होती है और चाहती है कि तुरंत न्याय हो? हां, चैनल इसे जनता के नाम से ही दिखाते हैं। पर, क्या इस मामले के अदालती अंजाम तक पहुंचने के पहले चैनलों को न्याय की चिंता थी? आम जनता रोजी-रोटी के मसलात को भूल कर कितनी बार अचानक रात में सोते हुए जाग बैठती थी कि अतीक अहमद को अभी तक सजा क्यों नहीं मिली? उसकी सुनवाई कितनी आगे बढ़ी, अभी वह कौन सी जेल में है?
अतीक मामले में पीड़ित पक्ष कौन है? जाहिर सी बात है कि उमेश पाल और उसका परिवार। क्या आम जनता ने कभी किसी चैनल वाले की माइक उसके मुंह की तरफ करके पूछा कि इसके पहले उमेश पाल के परिजनों को टीवी पर कितनी जगह दी गई? उसके परिजनों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति क्या है? उमेश पाल की स्मृति-शेष की तस्वीर में वह बात नहीं है जो चलते-फिरते, हंसते-रोते और नित्य क्रिया निपटाते अतीक अहमद में है। स्मृति-शेष की तस्वीरें आंखों में थोड़ी नमी और लबों पर थोड़ी खामोशी मांगती हैं, इसलिए वे टीवी की सनसनीखेज दृश्यता के अनुकूल नहीं है।
इस बात को समझने के लिए एक छोटा सा प्रयोग भी किया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति उमेश पाल और अतीक अहमद की तस्वीर एक साथ लेकर सड़क पर चले और आम लोगों से दोनों को पहचानने को कहे। शर्तिया यही हश्र निकलना है कि स्वर्गीय उमेश पाल को पहचानने वाले इक्का-दुक्का होंगे और शायद ही कोई ऐसा होगा जिसकी आंखों में अतीक अहमद को देख कर चमक न आ जाए। उनकी आंखों में अपराधी के प्रति नफरत नहीं रोमांच ही दिखेगा। चैनल उमेश पाल की हत्या की पीड़ा के साथ नहीं अतीक अहमद की सजा के रोमांच के साथ हैं। किसी भी समाज के लिए वह सुखद क्षण होता है जब अपराधी अदालत के अंदर से अपने किए अपराध की सजा पाकर निकलता है। यह सुख तब दिखता, जब हम हर जगह उमेश पाल के परिजनों का साक्षात्कार देख रहे होते। अभियोजन पक्ष के वकीलों को सुन रहे होते कि इंसाफ की राह तक चलने में कितनी मुश्किल आई।
चिंता इसी बात की है कि जनचेतना के निर्माण का प्रमाणपत्र रखने वाले चैनलों ने न्याय के सुख को अपराधी की नुमाइश के उन्माद में बदल दिया है। पुलिस वालों के वैसे बयान टीवी के पर्दे पर तैर रहे हैं जो किसी गल्पकथा में राबिनहुड दे तो चल सकता है, लेकिन संविधान के निर्देशों से चलने वाली संस्था के जिम्मेदार देने लगें तो आगे के लिए डर लगता है। इन चैनलों का बस चले तो हर थाने में किसी अक्षय कुमार या अजय देवगन जैसे ‘सिंघमों’ को बैठा कर पूरी न्याय प्रक्रिया का मुंबइया शैली के सस्ते मनोरंजन वाला सिनेमाईकरण कर दें। वैसे, बिना किसी खतरे के यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि जो स्तरहीन, संपादनहीन सिनेमा उन्होंने समाचार चैनल पर देखा कुछ ही महीनों में ओटीटी मंच पर ‘प्रयागराज क्राइम्स’ या ‘प्रयागराज फाइल्स’ के नाम पर देखेंगे। और, हम-आप बजट बनाते वक्त असमंजस में रहेंगे कि ओटीटी के ग्राहक बनें या चैनलों के?
सवालों के घेरे में हैं समाचार चैनल
अतीक अहमद कोई पहला मामला नहीं है, जब समाचार चैनल सवालों के घेरे में हैं। इस बार बस, लघुशंका ही अलग थी जिसके आने वाले समय में बिलकुल सामान्य बन जाने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। दृश्यता को मुनाफा बनाने वाले बाजार की त्रासदी यही है कि वे लोग भी इंटरनेट पर लघुशंका वाले दृश्य देखना चाह रहे, जिन्होंने हंगामे के बाद इसे जाना। आखिर एक-एक दृश्यता का बूंद इकट्ठा करके टीआरपी का समुद्र भरता है। आप हंसने के लिए देखिए, रोने के लिए देखिए, कोसने के लिए देखिए, ‘हे राम’ या ‘जय श्रीराम’ बोलने के लिए देखिए, लेकिन यह दिखना ही अतीक अहमद की खबर का बिकना है। आपके देखने की वजह कोई भी हो, चैनल के बही-खाते में आप सिर्फ एक दर्शक हैं और अतीक की लघुशंका मुनाफे का नया डंका।