Khalistani activist and Chief of ‘Waris Punjab De’ Amritpal Singh: किसी भी संप्रभु लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए अलगाववादी उस दीमक की तरह होते हैं जो धीरे-धीरे पूरे देश को खोखला कर देते हैं। पिछले समय से जिस तरह से पंजाब व अन्य जगहों पर भारत के खिलाफ अलगाववादी सुर मजबूत हो रहे थे, उसे अनसुना करना अब महंगा पड़ रहा है। सबसे चिंताजनक यह है कि पाकिस्तान के पास भी एक हमनाम पंजाब है और भारत का यह पड़ोसी देश अभी बड़े राजनीतिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। पाकिस्तान के आका अपने संकट का इलाज भारत में देखने लगते हैं और बजरिए पंजाब से लेकर कश्मीर इसे अस्थिर करने की कोशिश करते हैं। ‘वारिस पंजाब दे’ जैसे संगठन का अचानक से फलना-फूलना उस विष-बेल का बढ़ना है जो देश और पंजाब को फिर से 80 के दशक के पहले की अराजकता में झोंक सकता है। पंजाब ने जो भुगता है उस इतिहास को याद दिलाते हुए उस विष-बेल पर बात करता बेबाक बोल जिसे समय रहते उखाड़ फेंकना चाहिए।
‘अगर अब भी न समझोगे
तो मिट जाओगे दुनिया से
तुम्हारी दास्तां तक भी
न होगी दास्तानों में’
देश की संप्रुभता व अखंडता के लिए सबसे बड़ी चुनौती है अलगाववादी मानसिकता
एक बच्चा छूटा सुरक्षा चक्र टूटा…। यह नारा था पोलियो के खिलाफ, जो अभी तक का भारत का सफलतम स्वास्थ्य अभियान रहा है। पोलियो उन्मूलन अभियान प्रतीक है कि अगर सरकारें चाहें तो क्या नहीं हो सकता है। जिस तरह इंसानी शरीर के लिए पोलियो अभिशाप है, उसी तरह से देश की संप्रुभता व अखंडता के लिए सबसे बड़ी चुनौती है अलगाववादी मानसिकता। यह अलगाववाद किस तरह आतंकवाद का रूप ले लेता है इसके भारत सहित दुनिया के कई देश गवाह हैं। भारतीय इतिहास में पोलियो जैसा ही उदाहरण पंजाब का भी है। अगर सरकार के पास बेअंत सिंह और केपीएस गिल जैसे प्रतिनिधि हों तो आतंकवाद से लहूलुहान राज्य की भी मरहम-पट्टी कर उसे फिर से देश के खुशहाल राज्यों में एक बनाया जा सकता है।
कौम के आधार पर पाकिस्तान बनाने की मांग के साथ ही उठी थी सिखों के लिए अलग राज्य की मांग
किसी भी देश की स्मृति में उसके इतिहास का सजग संचार उतना ही जरूरी है, जितना किसी इंसान की धमनियों में रक्त का बहना। सबसे जरूरी बात यह कि इस इतिहास को वैज्ञानिक चेतना के साथ बरतने की सलाहियत भी होनी चाहिए। इसका मतलब यह कि दो जमा दो को चार ही बताना होगा, यह नहीं कि तात्कालिक फायदा उठाने के लिए आप धर्म, पंथ और अन्य चीजों का संगणक बना कर जनता को दो जमा दो आठ मानने पर मजबूर कर दें। पंजाब का यह दर्द औपनिवेशिक भारत से ही शुरू हो जाता है, जब धार्मिक पहचान के सुरों ने दो जमा दो को आठ बताना और समझाना शुरू कर दिया था। हिंदू-मुसलिम कौम के आधार पर पाकिस्तान बनाने की मांग के साथ ही सिखों के लिए अलग राज्य बनाने की मांग भी उठा दी गई थी।
1929 के कांग्रेस अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू की पूर्ण स्वराज की मांग पर एकता अधूरी थी
1929 में कांग्रेस के अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू के द्वारा पूर्ण स्वराज की मांग के उठते ही पता चल गया था कि आजादी की मांग को लेकर हमारी एकता अधूरी है। इस अधूरेपन में धार्मिक पहचान की एक आवाज जो उठी थी आज वह खालिस्तान नाम के अलगाववादी सुर के साथ जिंदा है।औपनिवेशिक भारत में आजादी के लिए खून बहाने वाले पंजाब ने सोचा भी नहीं था कि यहां अलगाववाद का बंजर बाग खड़ा कर दिया जाएगा। जलियांवाला बाग तो एक खास जगह पर स्थित स्मारक है जिसे देख कर औपनिवेशिक आजादी की कीमत को समझा जा सकता है।
अस्सी के दशक के बाद पंजाब में आतंकवाद के खिलाफ भी स्मारक तैयार हुए, लेकिन आज के नेताओं ने उस स्मारक को देखने की सलाहियत खो दी, या कह सकते हैं कि जानबूझ कर आंखें बंद कर ली। वह स्मारक है पंजाब के लहलहाते खेत, कल-कारखाने और देश के लिए मरने-मिटने के गीत गाते युवा। इस स्मारक की स्मृतियों में बेअंत सिंह से लेकर इंदिरा गांधी की शहादत के खून से लिखा हुआ है कि अलगाववाद का रास्ता हमारे बच्चे-युवाओं की तबाही से गुजरता है। घर से लेकर स्कूलों तक यह शब्द सिर्फ यह सबक सीखने के लिए दोहराया जाता था कि अब इसे दोहराने न दिया जाए।
लेकिन, स्मारकों की इबारतों पर राजनीतिक स्वार्थ की कालिख पोत कर आम आदमी पार्टी ने पंजाब में सत्ता पाने के लिए प्रवेश किया और इतिहास की स्मृतियों से लैस लोगों ने इसे एक बड़ी चेतावनी के रूप में देखना शुरू किया। भुला दिए गए अलगाववादी नारे लगाते नेताओं के प्राकट्य ने उस खौफ को एक बार और खड़ा होते देखा जिसका नाम खालिस्तान था। यानी, भारत के संविधान और तिरंगे से बाहर निकलने की मांग।
AAP की जीत के साथ ही लगने लगा कि पंजाब एक बार फिर अलगाववाद के नाम पर हार न जाए
आम आदमी की जीत के साथ ही लगने लगा कि पंजाब एक बार फिर अलगाववाद के नाम पर हार न जाए। सबसे बड़ा डर है पाकिस्तान से लगते क्षेत्र। सबसे बुरा होता है आशंका का आंखों के सामने घट जाना। सीमाई प्रांत के थाने पर अमृतपाल के संगठन से जुड़े लोग धावा बोलते हैं और, पुलिस के लोग कहते हैं कि माफ कीजिए, आप लोगों पर मुकदमा दर्ज कर गलती हुई। वे लोग हंगामा कर लौट जाते हैं और पुलिस माफी की मुद्रा में हाथ जोड़े खड़ी रहती है।
उसके बाद मानो हम एक कम बजट की बंबइया फिल्म देख रहे हैं, जिसमें एक गाड़ी आगे जा रही है, एक गाड़ी पीछे जा रही है। अचानक एक इंसान निकलता है और गली में गायब हो जाता है। ऐसा लगता है कि पीछे की सभी गाड़ियां उसे गायब होने देने के लिए रोक दी जाती हैं। फिर अभी तक पता नहीं चला है कि अमृतपाल को अवसरवादिता का आसमान निगल गया या राजनीतिक स्वार्थ की जमीन खा गई।
आम आदमी पार्टी की पंजाब में कोई जमीन नहीं थी, वह वहां पहुंची ही विकल्प बनने के नारे के साथ। लेकिन, उसने अपने स्वार्थ में अलगाववाद के खिलाफ पंजाब के संकल्प पर ही झाड़ू फेर दिया। पंजाब की बूढ़ी आंखें यह सब देख कर आगाह कर रही थीं, लेकिन आरोप है कि आप आंखें मूंद कर पंजाब में अलगाववादी आवाजों को ऊंचा होने दे रहे थे। आपके स्वार्थ का असर यह है कि आज अलगाववादी वह कर रहे हैं जो पंजाब में आतंकवाद के चरम पर भी नहीं हुआ था। मंदिरों पर हमला नहीं हुआ था।
अब आस्ट्रेलिया के हिंदू मंदिरों को निशाने पर लिया गया। दुनिया भर के विकसित देशों में सिख समुदाय के लोग भारत के वैसे प्रतिनिधि के रूप में देखे जाने लगे हैं जो अपने श्रम और पंथ के प्रति श्रद्धा के साथ अपने लिए एक खुशहाल आबोहवा रचते हैं। विदेशी जमीन पर अगर मंदिरों पर हमले और भारत के खिलाफ अलगाववादी नारे की घटनाएं बढ़ीं तो पूरे कौम को इसका बुरा अंजाम भुगतना पड़ सकता है।
आज, सारी दुनिया में रूस-यूक्रेन युद्ध में शांति बनाने के लिए भारत की तारीफ हो रही है। विकसित देशों के नेता भारतीय अखबारों में भारत को चीन से बड़ी शक्ति बनने का सपना देख रहे हैं, उसके लिए शुभकामना दे रहे हैं, वहीं भारत के खुशहाल राज्यों में से एक पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान से अदालत पूछ रही है-आपके 80 हजार पुलिसबल थे, वे क्या कर रहे थे?
अदालत को यह सवाल इसलिए करना पड़ा क्योंकि इसके पहले हर उस दृश्य को नजरअंदाज किया जा रहा था जो आज के हालात के लिए जिम्मेदार है। एक अचानक से उभरे व्यक्ति का क्षेत्रीय और सोशल मीडिया पर महिमामंडन शुरू हो जाता है। इसके साथ ही उसे नाकयत्व दे भिंडरावाले-द्वितीय का भी खिताब दे दिया जाता है। उसके साक्षात्कार इस तरह होने लगते हैं जैसे देश का सारा तंत्र व एजंसियां फेल हो गई हों और समाज-सुधार के काम के लिए इनका अवतार हुआ हो। शुरुआत होती है आश्रमों में जनता की छोटी परेशानी खत्म करके और अंत होता है देश और संविधान के सामने चुनौती पैदा करके।
इसके पहले भी देखा गया था कि पूरे पंजाब में गोली चलाते, हिंसा से भरे गानों का एक बड़ा समर्थक वर्ग खड़ा हो गया था। सोशल मीडिया पर इस हिंसा को पंजाब की अस्मिता के साथ जोड़ दिया जा रहा था और इसके खिलाफ बोल कर कोई भी एक बड़े प्रभावशाली वर्ग को नाराज नहीं करना चाहता था।
इस मुद्दे पर सबसे अहम बात। इन दिनों पूरे देश में आर्थिक जांच से जुड़ी एजंसी की तारीफ हो रही है। भ्रष्टाचार होने की बात तो छोड़िए जरा अतिरेक में कहा जाए तो ये एजंसियां ऐसी कृत्रिम बौद्धिकता से लैस हो चुकी हैं कि भ्रष्टाचार करने के बारे में सोचते ही आरोपी को जांच के दायरे में ले आती हैं।
लेकिन, सुरक्षा से जुड़ी जांच एजंसियां दिल्ली, कश्मीर से लेकर पंजाब तक में नाकाम क्यों हो रही हैं? सुरक्षा जांच से जुड़ी एजंसियों को भी उसी जगह से एक कौशल अद्यतन पाठ्यक्रम करवाया जाए जहां से प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो जैसी एजंसियां चुस्त-दुरुस्त होकर निकली हैं।
देश के गृह-मंत्री के लिए इंदिरा गांधी के हश्र जैसी धमकी देकर भी कोई अगर शिकंजे से बाहर है तो यह देश के हर नागरिक के लिए खौफ की बात होनी चाहिए। याद रखिए, पंजाब-दिल्ली के रिश्तों के रास्ते पर गड्ढे पड़ेंगे तो कश्मीर में सुधार की सड़क भी धंसने लगेगी। पंजाब की खुशहाली ने पूरे देश को अपने-अपने हिस्से की खुशी दी है। आज पूरे देश की जिम्मेदारी है कि पंजाब को जिस तरह कट्टरता और आतंकवाद से बचा कर निकाला गया था उसे बचाए रखा जाए।