कोई भी राजनीतिक दल अपनी विचारधारा की किताब में भ्रष्टाचार को जायज नहीं ठहराता है। लेकिन कथनी के विपरीत करनी में भ्रष्टाचार के आरोपों को नेता अपने कंधे पर लगे योद्धा के तमगे की तरह लेने लगते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर सांस्थानिक पेशी के दौरान सड़क पर ऐसा दृश्य पैदा किया जाता है जिसे देख कर ‘राजनीतिक शुचिता’ जैसे शब्द भारतीय राजनीति से अपना इस्तीफा दे देंगे। सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए भ्रष्टाचार महज शक्ति प्रदर्शन तक सीमित रह गया है। जिसकी सत्ता उसकी संस्था एक पैमाना बन ही चुका है। अण्णा आंदोलन में अंगड़ाई लेने के बाद क्रांतिवीरों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘आगे और लड़ाई है’ से इनकार ही कर दिया। अब जबकि चुनावी मैदानों में भ्रष्टाचार सबसे पीछे की कतार में अपनी बारी का इंतजार कर रहा है तो प्रवर्तन निदेशालय में राहुल गांधी की पेशी के दौरान राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन के बने दृश्यालय पर बेबाक बोल।
सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट बनाती है…
राजनीति-विज्ञान का यह कड़वा सच ग्लोब पर स्थित हर सत्ताधारी पर लागू होता है। राजशाही से लेकर लोकतंत्र या साम्यवादी सरकार हो, सत्ता में आते ही आचार के भ्रष्ट होने के आरोप सब पर लगे। और, जब आपने सत्तर सालों तक दुनिया के बड़े देशों में से एक भारत की सत्ता संभाली है तो फिर एक दिन ऐसा आना ही था जब आपको भ्रष्टाचार का पर्याय बना दिया जाएगा, आपसे जुड़े दस्तावेज जो ठंडे बस्ते में थे अब अवसर की आंच मिलते ही सांस्थानिक हांडी में खौलने लगे।
भारत में हर राजनीतिक दल पर सत्ता के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं। ज्यादातर मामलों में तो आरोप अदालत में पार्टी के सत्ताधारी रहने तक ही पहुंच जाते हैं। नेशनल हेराल्ड का मामला कांग्रेस के सत्ता में रहते और चारा घोटाले के आरोप लालू यादव के बिहार की राजनीति में शक्तिमान रहते ही दर्ज कर लिए गए थे। लेकिन सत्ता बदलते ही इन मामलों में तेजी आने लगती है जो स्वाभाविक भी है। आखिर आपके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अपने आगे का रास्ता साफ क्यों नहीं करना चाहेंगे। वैसे भी कांग्रेस को सत्ता से बर्खास्त कर जो पार्टी अभी सत्ता में आई है वह चुनाव लड़ने से लेकर हर संस्था को लेकर सक्रिय है। उसकी सक्रियता का यह असर तो होना ही था।
नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गांधी की प्रवर्तन निदेशालय के दफ्तर में पेशी चल रही है। यह भारतीय संविधान के तहत अदालती मामला है। यानी दोषी साबित पाए जाने पर अदालत द्वारा तय सजा काटनी ही होगी। सांवैधानिक संस्थाओं की कार्रवाई के बरक्स मैं सावरकर नहीं राहुल गांधी हूं…झुकेगा नहीं जैसे पोस्टर का कोई औचित्य नहीं होना चाहिए। कांग्रेस कार्यकर्ता सावरकर वाला पोस्टर लगाने के पहले भूल गए कि प्रधानमंत्री के लिए खास शब्द इस्तेमाल करने वाले बयान के मामले में राहुल गांधी ने अदालत में माफी मांग ली थी।
तर्क दिया जा सकता है कि जो सुब्रमण्यम स्वामी नेशनल हेराल्ड मामले को अदालत तक लेकर आए थे बाद में वही सुस्त हो गए थे। सात दिसंबर 2015 को दिल्ली हाई कोर्ट ने नेशनल हेराल्ड मामले में स्टे आर्डर दिया था। लेकिन यह मामला खारिज नहीं हुआ था। मामला छोटा हो या बड़ा मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा है भ्रष्टाचार को लेकर भारतीय राजनीति के रुख का जो भारतीय लोक का मानस भी तैयार करता है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आपको चुपचाप न्यायिक संस्थाओं की तरफ बढ़ जाना चाहिए तो आपकी पार्टी सड़क पर शक्ति प्रदर्शन करने लगती है।
भारतीय राजनीति के इतिहास में 2014 वह मोड़ था जब भ्रष्टाचार चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना। अण्णा हजारे के खड़े किए आंदोलन और भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार के बाद लगा था कि देश का माहौल बदल जाएगा। देश के जमाई की कमाई (राबर्ट वाड्रा) के खिलाफ जो विपक्ष का तूफान उठा था उसे देख कर आम लोगों को लगने लगा था कि कांग्रेस के जाते और भाजपा के आते ही राबर्ट वाड्रा जेल में होंगे। ध्यान रहे कि वाड्रा का मामला 2014 में राजग सरकार के आने के पहले का है। हर मामले की तरह वह मामला भी अदालत में चल रहा था। लेकिन विपक्षी भाजपा ने ऐसा दिखाया कि उससे बड़ा भ्रष्टाचार इस धरती पर इससे पहले न हुआ था न आगे होगा।
देश की जनता ने पहली बार भ्रष्टाचार मिटाओ को रोमांच की तरह लिया और कांग्रेस को हटा दिया। कांग्रेस की सत्ता गई लेकिन वाड्रा से जुड़े अदालती मामले उसी चाल से चल रहे हैं। वे अभी जेल में नहीं हैं। वे अदालती कार्रवाई पूरी हुए बिना जेल जा भी नहीं सकते हैं। हो सकता है कि उन पर कोई दोष सिद्ध हो भी जाए या फिर कोयला खदान आबंटन की तरह निर्वात में चला जाए। मुद्दा इतना ही था कि भाजपा भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस के हर फटे को खोज-खोज कर उसे पूरी तहर फटेहाल दिखाना चाहती है।
बिहार से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक से लेकर दिल्ली, दुखद यह है कि भ्रष्टाचार के आरोप पर कोई भी दल शर्मिंदा होने के बजाए उसे शक्ति प्रदर्शन की तरह लेता है। तमिलनाडु के नेताओं से लेकर बिहार में घोटाले के दोषी तक। इन नेताओं के कार्यकर्ता व इनसे जुड़े अकादमिक व वैचारिक समूह इन्हें मसीहा की तरह प्रदर्शित करते हैं। अगर किसी नेता को जेल हुई और बहुत से नेताओं को नहीं हुई तो इसके पीछे अदालत में पेश होने वाले वकील भी हैं। आपके वकील क्या तर्क और सबूत पेश करते हैं मामला नब्बे फीसद तक इसी पर निर्भर करता है। हाल के दिनों में भी देखा गया कि यूएपीए के मामले में किसी खास को जमानत मिल गई तो कोई अभी तक जेल में ही है।
ऐसे मामलों को जाति व धर्म के चश्मे से देखने से अच्छा है, वकील की काबिलियत के नजरिए से भी देखा जाए। हाल ही में ज्ञानवापी मामले में एक टिप्पणी को लेकर विश्वविद्यालय के शिक्षक को आसानी से जमानत मिल गई लेकिन तुलनात्मक रूप से वैसे ही कई मामलों में कई लोग जेल में ही हैं। इसके पीछे एकमात्र वजह शिक्षक को काबिल वकील की दलील मिल जाना था।
सोनिया गांधी व राहुल गांधी कांग्रेस के पहले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें जांच एजंसियों के सामने पेश होने का आदेश दिया गया है। जनता पार्टी की सरकार में इंदिरा गांधी पर चले मामलों को देखा जाए तो एक नजर में वे विचित्र लग सकते हैं। लेकिन इंदिरा जनता की नजर में कद्दावर नेता थीं, उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को जैसे ही अहसास हुआ कि अब वो सत्ता में नहीं हैं, तो उन्हें अपने तख्तनशीं और खुदा होने का यकीन दिलवाया जाए।
सत्ता के घमंड का सुख सिर्फ इंदिरा क्यों लें, विकल्प भी संविधान की शपथ लेते ही संवैधानिक रूप से ही सही अपनी ताकत की पुरजोर आजमाइश जल्द से जल्द कर लेना चाहता था। जनता पार्टी की सरकार भले कितने ही कम समय के लिए रही हो लेकिन इंदिरा गांधी के खिलाफ अपना अधिकतम गुस्सा निकाल कर गई। इंदिरा गांधी ने भी जनता पार्टी की लाई आपदा को अवसर की तरह लिया और जनता के बीच अपनी नायकनुमा छवि वापस पाने में कामयाब हुईं।
रही बात आज के दौर में प्रवर्तन निदेशालय की तो उसकी दोषसिद्धि का रेकार्ड इतना खराब है कि उसे सत्ता की सहयोगी संस्था के रूप में सहज ही देखा जाने लगता है। उसका कार्यक्षेत्र व अधिकार भी इस तरह के हैं कि उसकी कार्य प्रगति पर सियासी मौसम का प्रभाव पड़ ही जाता है। 2014 के चुनावों में अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस व भाजपा के नेताओं पर भ्रष्टाचार के जितने भी आरोप लगाए उनमें से ज्यादातर में माफी की आंधी ला दी। अदालतें इंतजार ही करती रहीं कि कोयला खदान आबंटन को लेकर चुनावी मैदानों में जो सबूत ट्रकों में घूम रहे थे उनमें से कोई साइकिल से भी पहुंचे तो वे भी ऐतिहासिक फैसला सुनाने का सुख लूटें। लेकिन चुनाव के बाद ये मामले सियासी सुस्ती की खदान में दब गए।
2014 ने एक उम्मीद जताई थी कि भारतीय लोकतंत्र भ्रष्टाचार को लेकर संवेदनशील बनेगा। लेकिन ज्यादातर चुनावी वादे की तरह यह भी टूट गया। भ्रष्टाचार के आरोपी व दोषी नेता को राजनीतिक दल अब पहले से ज्यादा मसीहाई अंदाज में प्रस्तुत कर रहे हैं। नेताओं से पूछताछ जिस तरह राजनीतिक प्रदर्शन का सबसे बड़ा मौका बना दिया जा रहा है उसे देख कर लग रहा कि अब भ्रष्टाचार को नैतिकता के तराजू पर तौलना मेंढक तौलने के बराबर हो गया है। जिस दल का नेता आरोपी बनेगा वह तराजू से छलांग लगा कर अपनी अलग उछल-कूद मचाने लगेगा। सबका यही मंत्र है कि हमने किया तो शुद्ध आचार और तुमने किया तो भ्रष्टाचार।
हमारे लोकतंत्र के लिए भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है या उसे लेकर राजनीतिक दलों का भ्रष्ट आचार, इसकी तुलना मुश्किल है। यह सिर्फ संगीतमयी कुर्सी का खेल बन गया है। दिल्ली के अति विशिष्ट सुरक्षा वाले इलाके में स्थित कांग्रेस पार्टी कार्यालय में जिस तरह दिल्ली पुलिस का कार्यबल पहुंचा वह भी चिंताजनक है। तेरी सत्ता व मेरी सत्ता के इस खेल में संवैधानिक संस्थाओं को पूरी तरह कमजोर बनाया जा रहा है। प्रवर्तन निदेशालय का रेकार्ड चाहे जितना सुस्त हो लेकिन उसके सक्रिय होते ही जो प्रदर्शन दृश्यालय बनता है वह लोकपाल की तरह लुप्त राजनीतिक शुचिता के लिए शोक का दृश्य है।